बड़ी खामोसी से बैठे हैं फूलो के धरौदे....जरा पूछ बतलाएंगे सारी गुस्ताखिया....!!!______ प्यासे गले में उतर आती....देख कैसे यादों की हिचकियाँ....!!!______ पलके उचका के हम भी सोते हैं ए राहुल....पर ख्वाब हैं की उन पर अटकते ही नहीं....!!!______ आईने में आइना तलाशने चला था मैं देख....कैसे पहुचता मंजिल तो दूसरी कायनात में मिलती....!!! धुप में धुएं की धुधली महक को महसूस करते हुए....जाने कितने काएनात में छान के लौट चूका हूँ मैं....!!!______बर्बादी का जखीरा पाले बैठी हैं मेरी जिंदगी....अब और कितना बर्बाद कर पाएगा तू बता मौला....!!!______ सितारे गर्दिशों में पनपे तो कुछ न होता दोस्त....कभी ये बात जाके अमावास के चाँद से पूछ लो....!!!______"

सोमवार, 30 नवंबर 2015

लप्रेक ८



पूरे कापी के बंडल को उँगलियों से गिन रहा था। कापी नंबर 24 मेरी गणित के हिसाब से 30 मिनट में साइन होगी मेरी कापी। ऊपर से तिवारी सर की क्लास वो तो बिना दंडहरे छोड़ेंगे नहीं। कलाई घुमा के घड़ी देखा तो 14 मिनट छुट्टी होने में थे।

हे भगवान !! आज लेट करा दे उसकी जीप। बड़े शातिरता से उसनें तिवारी मास्टर की नज़र से बचा कर कुछ कापी की जगह अदली-बदली करदी।
जिसकी वजह से उसे तीन बेंत की सजा मिली। ये सजा तो वो चार-पाँच बेंत खाकर भी हजम कर जाता पर अगली सजा नें उसकी जान पर रेज़र मार दिया।
अब उसकी कापी सबसे आखिरी में चेक होगी।


स्कूल से निकलते ही उसनें खट्टा-मीठा बेचने वाले से इशारे सब कुछ पूछ लिया में पूछ लिया। बस क्या था उसनें निकली अपनी हरक्युलेस रेंजर साइकिल और राणा प्रताप की तरह चेतक को दौड़ाने को लगाम खींच लिया।

दूर दूर तक कोई नहीं था। पर अचानक एक कमांडर जीप दिख गयी। ऊपर से आ गयी उसकी फेवरिट शॉर्ट-कट गली। उड़ान भरता हुआ वो जा पहुंचा जीप के आगे। बस निकलती जीप के पीछे से बाय-बाय करके इशारा किया। जवाबी बाय-बाय नें तो उसका दिन बना दिया।

भूल गया तिवारी की बेंत स्कूल की लेट। मिल गयी जन्नत उसको।

- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)

सोमवार, 23 नवंबर 2015

बेतरतीब उलझन



फुर्सत में ठहरो तो कुछ हम भी कहे,
आँखों में उतरो तो कुछ हम भी कहे।

बेतरतीब उलझन फैली हैं इर्द-गिर्द,
आ सुलझें खुद सुलझानें को भी कहे।

फ़लक नें रोक रखे बहुत टूटे सितारे,
ऊपर झांकों तो गिराने को भी कहे।

शाम की जुल्फें कान के पार लगाए,
वादे किए है जो निभाने को भी कहे।

अच्छा है जो थम गया मर्ज तेरा-मेरा,
सुने ज़िंदगी की सुनाने को भी कहे।

©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से)(२३-नवंबर-२०१५)

सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

पुरानी दस्तख़त


पुरानी दस्तख़त में अपने सुनाया होता,
कोई अपना अगर मिलने बुलाया होता।

कितने कलपुर्जे और चलते हुए मिलते,
नज़्मों को तुमने आवाज़ लगाया होता।

इंतज़ार करता रहता हूँ हर रोज़ तेरा,
प्यार कम कर थोड़ा और सताया होता।

वशीहत लिख रहा हूँ अपनी यादोँ का,
कीमत कितनी कुछ तो सिखाया होता।

जिंदगी इसी मलाल में जी रहा ए खुदा,
काश तूने एक चाँद और बनाया होता।

©खामोशियाँ - २०१५ | मिश्रा राहुल
(27-अक्टूबर-2015)(डायरी के पन्नों से)

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2015

Talentrix Online Contest


codesgesture.com & The Maestro Productions presents Talentrix - An online Contest to Explore your TALENT..!!

Photography ... Painting ... Dancing ... Singing ... or Any Talent you think YOU HAVE...!!
Record it ... Send it


Apart from Generic Talent Drawing, Singing, Photography, Dancing Talentrix other section includes Like

- Mimicry
- Bike Stunt
- Funniest Selfie
- Dubsmash
- Acting with Famous Dialogue...


So Why to wait Just PERFORM RECORD UPLOAD...!!
And Become THE TALENTRIX Season - I Winner



For More Detail - Competition Link 

लप्रेक ७


कानो के दो सूराखों में झुमके भरते हुए बोला।  देखो कैसे मस्ती से झूम रहा तुम्हारे कान को पकड़ के। लाल सूरज, तरंग फ़्लाइओवर, नीचे तेज रफ्तार ट्रेन और ऊपर ये बेहतरीन अकेली हवाएँ।

हवाएँ अकेली नहीं देखो नीले बैक्ग्राउण्ड में दूर कबूतर के जोड़े खोल दिये है अपने पंख। नीचे की चिल्ल-पों से दूर वहाँ ना वहाँ पुलिस की सीटी है ना लफंगों का घूरती निगाहें।

बातें मद्धिम होती चली गयी। कबूतर के जोड़े ऊपर ही ऊपर निकल गए। बस मगरमच्छी निगाहें उस जगह को घेरने लगी।

©खामोशियाँ-2015 | मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से) (15-अक्तूबर-2015)

सोमवार, 21 सितंबर 2015

लप्रेक ६



दीन दयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय के ठीक सामने। दो अंजान गलियों से अचानक दो बिलकुल सफ़ेद रंग की ऐक्टीवा अर्ध-वृत्त बनाते हुए सरल रेखा में आ गयी। साथ ही नज़रें भी सामने से हटकर क्षैतिज पटल पर जम गयी।

सुरुचि तुम और गोरखपुर में - हाँ राजीव मैं वो भी गोरखपुर में। मेरा एसएससी का सेंटर यहीं आया। एडमिट कार्ड स्कूटी के डिग्गी से निकालते अपना नंबर ढूंढने लगी। लाओ राजीव एडमिट कार्ड तुम्हारा देख लूँ। उनसे झट से अपने शर्ट में छुपाते बोला, ओह वो तो घर भूल गया। आदत तुम्हारी बदल सकती है?? कुछ आदतें बदलने के लिए नहीं होती।

ठहाके लगाते दो जुड़वा स्कूटी में से एक लापता हो गयी। राजीव नें फोटोकॉपी दुकान पर गाड़ी धीमी की। यहाँ पर मूवी दिखाओगे सुरुचि बोल पड़ी, पता है तुम्हारे पास है एडमिट कार्ड। कुछ आदतें अपनी ऐसी ही रखना उम्र भर। गाड़ी का एक्सलरेटर तेज हो गया जा पहुंचा माया सिनेप्लेक्स।

©खामोशियाँ-2015 | मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से) (21-सितंबर-2015)

गुरुवार, 10 सितंबर 2015

लप्रेक ५



घड़ी में तीन बजे नहीं की रास्ता निहारना शुरू। बैंक रोड पर बारिश कुछ ज्यादा ही हो रही थी। लड़के की छप्पर भी टप-टप-टप। देखने के चक्कर में उसने कई ग्राहकों पर ध्यान तक नहीं दिया। उसने बस रुवांसा मुंह बनाया ही था कि ठेले पर लगे बताशों के ढ़ेर के पीछे से आकर एक बाला नें हाथ बढ़ाया।

क्लचर खोलकर उसने बालों को ऐसा झटका मारा जैसे मानो रजनीगंधा की खुशबू पूरे पांचों फ्लेवर को एक ही बना दिया।

पहले पुदीना फिर सौंफ फिर हींग। पहाड़े की तरह याद कर रखा है। हर दो पुदीने के बताशों के बीच एक मीठा मज़ा। काफी पुरानी यारी सी लगती।

प्यार तो प्यार है एक अधिक बताशे या दों के बीच एक मीठा खिलाने से भी हो जाता।

- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)

शुक्रवार, 21 अगस्त 2015

लप्रेक ४



स्टूडेंट गैलरी पर एक स्टैंड पर खड़े अपनी-अपनी किताबें खंगाल रहे थे। तभी वो बोल पड़ा "जब से इश्क के रोजगार हुए है, नज्में भी सन्डे खोजती।" बोलकर चुप हो गया।

"नज्मों की दुकान नहीं खुलती, मेरा शहर सन्डे को बंद रहता।" मिल गया जवाब एक प्यारी सी हंसी देकर फुल स्टॉप लगा दिया।

रस्किन बांड और पॉल कोएल्हो पढने वाली बाला कबसे हिंदी में जुमले पढने लगी।

तुमसे बदला लेने के लिए इतना तो ख्याल रखना होगा ना मेरे मजनू। वैसे भी मिले थे बुक स्टोर पे और तुमने ही सिखाया था एक बुक को दो लोगो को पढने में प्यार बढ़ता।

तभी मेरी बुकमार्क पर तुम आगे बढ़ जाती और तुम्हारी पे मैं। दोनों ख़त्म करते तो आधी तुम पढ़ पाती आधी मैं। कुछ ऐसा करो दोनों साथ ख़त्म कर सके पूरी किताब।

©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से)(२०-अगस्त-२०१५)

सोमवार, 17 अगस्त 2015

लप्रेक ३


घुप अंधेरे में धर्मशाला फ्लाईओवर पार करते। उसने बस ये कहा कि रात को शहर इतना खामोश क्यूँ हो जाता है मानो चाँद इयरफोन लगाकर बातें सुनता।
जैसे दिन में शहर तेरी बक-बक से इतना शोर हो जाता की मेरी फरमाइश तुम्हारी माइक तक नहीं पहुँचती मिस आरजे। व्हाट्सएप फरमाइश नहीं चलती क्या तुम्हारे एफ़एम मे।

कभी बाजा भी दो। "प्यार तो होता है प्यार। फिल्म-परवाना"

दिनभर एक तरफा वाकी-टाकी लगाए तुम बोलते रहती। सुनो ऐसा क्यूँ न करे मैं भी दूसरे एफ़एम आरजे बन जाऊँ और फिर बातें होती रहेंगी पूरे शहर के बीचों-बीच।

दूर जाती मोटरसाइकल में दोनों की आवाज मद्धिम होते चली गयी।

©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से) (१६-अगस्त-२०१५)

लप्रेक २

पंद्रह अगस्त समारोह के ठीक पहले दो स्कूल हाउस कैप्टन दूर से निगहबानी कर रहे। तम्बू पर कान चिपके सारे फुसुर-फुसुर सुन रहे।

"दो मिनट तक तो आजाद रहो तुम। " शिखा ने प्यार से कहा

"कल पंद्रह अगस्त हैं ना?" रोहन ने जवाब में सवाल किया

"तो आज क्या गुलाम हो तुम??"  शिखा ने पूछा

"ये तुमसे बेहतर और कौन जानेगा।" रोहन ने कहा

"हद करते हो। तुम्हें फ़ीता तक तो बांधने का टाइम नहीं, लाओ ना मैं बांध देती हूँ।" शिखा ने कहा

दूर खड़ी पूरी स्कूल की आँखें दो घरों में एक घर बना रहे। वो तो केवल बालों की क्लिप में लगे तिरंगे को ही जाने कबका सैल्यूट मारकर परेड पूरा कर लिया।

©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से) (१५-अगस्त-२०१५)

गुरुवार, 13 अगस्त 2015

लप्रेक १


सीटी के साथ ट्रेन निकल पड़ी। खिड़कियों से सटे दो आँखों के बीच दो उँगलियाँ एक दूजे में गुफ्तगू कर रही। पीले बैक्ग्राउण्ड में काले अक्षरों के बोल्ड लेटर में कुछ गुदा है। आपातकालीन खिड़की से पूरा गर्दन बाहर निकालकर देख तो लिया। भुनभुनाया भी "engage" पर स्टेशन जैसा नहीं लग रहा ये नाम।
उसके दुपट्टे ने अभी आधा सर कलम किया था कि "टिकिट दिखाइए"।

उसने टीटी को घूर कर देखा। लो दिखा दो ना। इतना कहकर मुस्कुरा दी और आधे सर कलम की रश्म भी पूरी हो गयी। 

स्क्रीन पर टिकिट था ही नहीं, बस वही पीले बैक्ग्राउण्ड में काले बोल्ड अक्षरों में कुछ गुदा था जो वह आजतक भूल नहीं पाया। स्टेशन का नाम नहीं था। भला अंकगणित में स्टेशन कब से छपने लगे।

©खामोशियाँ | (१३-अगस्त-२०१५)
(मिश्रा राहुल) (डायरी के पन्नो से)

गुरुवार, 6 अगस्त 2015

साकी



चाहे पागल कह दें पर जाम दे दे,
साकी इतना ना रुला इनाम दे दे..!!

सपने बेगैरत हुए है आज कल के,
जिंदगी फिजूल रही मुकाम दे दे..!!

नींद नहीं दे सकता मर्जी है तेरी,
बस कश्ती को मेरी अंजाम दे दे...!!

वास्ता क्या है मेरा-तेरा पता नहीं,
मुझे ज़िन्दगी की पहचान दे दे..!!


©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल 
(०६-०८-२०१५)(डायरी के पन्नो से)

बुधवार, 5 अगस्त 2015

थोडा सम्हलकर चल


दिल अभी टूटा है 
थोडा सम्हलकर चल,
देख लिया बहुत कदम बदलकर चल..!!

साँझ है अभी शब भी आएगी जल्द ही,
किस्मत से कभी आगे निकलकर चल..!!

थोडा सा ही बचा है फासला तेरा-मेरा,
कभी गलियों का माज़रा देखकर चल..!!

पता चल जाएगा तुझे दर्द-ए-इश्क मेरा,
ज़रा अपने जूते मुझसे बदलकर चल...!!


©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल 
(०५-०८-२०१५)(डायरी के पन्नो से)

शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

इश्क़ में हदें



इश्क़ में हदें जब से बनने लगी,
दिलों में सरहदें भी बनने लगी।

घायल हुए कई कबूतरों के जोड़े,
यादों की खपड़ैल भी टूटने लगी।

सँजोये रखा था बहुत कुछ हमने,
ख्वाबों की चाभी भी रूठने लगी।

कुछ माँझे सुलझते नहीं हैं कभी,
डोर पतंगों की भी छूटने लगी।

मिश्रा राहुल | खामोशियाँ
(26-जुलाई-2015)(डायरी के पन्नो से)

शुक्रवार, 24 जुलाई 2015

छोटी सी पहल - लघु कथा



बरसात में भीगती शाम में अकेले तनुज अपनी दूकान में बैठा रास्ता निहार रहा था सुबह से एक भी कस्टमर दुकान के अन्दर दाखिल नहीं हुआ। तनुज से बाजू में रखी ईश्वर की मूर्ति निहारी थोडा दिमाग पे जोर भी डाला फिर मन ही मन बडबडाया " पिछले एक हफ्ते से आखिर कोई दूकान में आता क्यूँ नहीं। पूजा भी किया है भरपूर नारियल भी तोड़ा मंदिर में। फिर भी भगवान में मेरी किस्मत तोड़ रखी है।"

यही सब भुनभुनाता तनुज फिर से रास्ते को निहारने में जुट गया। वो एक बार बहार झांकता फिर वापस अपने दराज पर देखता। चार दस के नोट दो बीस के और एक पचास के कुल मिलकर हुए 130 रुपये। उसी 130 रूपए को हजारों बार गिन चूका था। तनुज घर का बस एक कमाने वाला उसके घर का चूल्हा बस तनुज की कमाई पर चलता है। हाँ एक बीबी है एक बेटी है परी। बीबी के जरुरत के सामान बेटी के स्कूल का खर्च। बहुत सारा दबाव में रहता तनुज आजकल। घर पहुँचता तो सारा परिवार एक आस की निगाह से उसे देखता, पर तनुज एक पास उसके एक प्यार भरी मुस्कान के अलावा और कुछ नहीं देने के लिए।

दो पहर क्या दो दिन में एक बार चूल्हा जलता। जिस दिन थोड़ी कमाई हो जाती पेट की आग बुझ जाती नहीं तो दो जून की रोटी जुटाने तक की भी कमाई नहीं हो पाती। ऊपर से दूकान का भाड़ा भी दिन बदिन चढ़ता जाता। रोज दूकान मालिक आके गली-गलौज कर जाता। बिटिया की स्कूल फीस जमा नहीं हो पाई थी इसीलिए उसका नाम स्कूल वालों नें काट दिया था। इधर तनु भाभी भी बीमार ही रहती थी। पर गरीबों की बीमारियाँ देखता कौन है लोग क्या पल्ला झाड़ेंगे ईश्वर ही कभी नहीं झाँकता उनके तरफ।

साक्षी भाभी बड़ी उत्कृष्ठ विचार धारा साधारण सी महिला थी। साधारण कहना थोड़ा सा गलत होगा वो असाधारण महिला थी। पढ़ी लिखी तो नहीं थी पर अनुभव की मिट्टी नें उन्हे इतना पका दिया था कि समाज की हर बारीकियों से वाकिफ थी। तनुज अपनी विवशता बताता तो नहीं था पर उसको देखकर ही साक्षी सब कुछ समझ जाती थी।

तनुज एक मोबाइल रीचार्ज दुकान चलाने वाला आम आदमी। वैसे तो तनुज की दुकान मेन रोड पर थी। आम तौर पर अच्छी-खासी चलती थी। पर बीते कुछ दिनों से दुकान भी फीकी थी और उसकी रंगत भी गायब। तनुज गहरी सोच में डूब गया आखिर ऐसा हुआ क्या कि लोगों नें रीचार्ज भरवाना बंद कर दिया। मोबाइल तो सबके हाथों में हर रोज देखता था वो, साथ ही बात करते भी। वो सोचता रहा और जाने क्या क्या अपने दिमाग में उलझाता रहा। लेकिन आज भी दिन जस का तस ही रहा। फिर वहीं मालिक का ताना और फिर वही भगवान को कोसना। पर आज कुछ बदला था हाँ तनुज का व्यवहार। तनुज तिलमिला उठा।

उसनें बड़े गुस्से से शटर की कुंडी खींच कर नीचे पटक मारा। जैसे यूं हो की दुनिया भर का गुस्सा उसनें उस शटर पे उतार कर बदला ले लिया हो। घर पहुंचा तो नन्ही बिटिया परी दौड़कर उसके पास आई। तनुज झल्ला कर उसको एक थप्पड़ मार दिया। परी रोते-रोते साक्षी से लिपट गयी। उसको रोता देख साक्षी की आँख से एक आँसू उसके गालों को छूता हुआ जमीन पर दम तोड़ दिया। तनुज नें एक शब्द नहीं बोला और सीधा कमरे में जाकर लेट गया। आँख बंद करके कुछ सोच रहा था। पर अचानक उसने अपने माथे पर हौले-हौले से सहलाहट को महसूस किया।

तनुज आँख बंद करते ही बोल रहा था। “साक्षी जाओ मुझे अकेले रहने दो थोड़ी देर सही। थोड़ी देर में मैं सम्हाल लूँगा खुद को।” बहुत मिन्नते करने पर भी जब सहलाना बंद ना हुआ तो तनुज फिर झल्लाया “साक्षी तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है मैं कह रहा न जाओ यहाँ से।”

“पर मैं साक्षी नहीं पापा मैं तो परी हूँ” एक हल्की सी आवाज नें पूरे झल्लाहट को रौदकर रख दिया।

तनुज नें सर घूमकर परी को देखा तो दंग रह गया उसके पांचों उँगलियों की लाल स्याही अपने गोरे से गाल पर लगाए परी उसके सर को सहलाए जा रही थी। तनुज परी को गले लगा लिया। उसका गला भर गया। परी तनुज से ऐसे चिपकी हुई जैसे छोटी सी खिलौने वाली गुड़िया बचपन में बच्चे सीने में चिपका लेते। तनुज के आँख रिसने लगे। परी नें दोनों हाथो से उनके आँसू पूछ दिया और एक हल्की सी मुस्कान दे दी। मंजर मानो ऐसा कह रहा हो पापा नें बिटिया से माफी मांग लिया और बेटी नें भी उन्हे माफ कर दिया।

“तनुज!! मुझे पता है तुम्हारी दुकान नहीं चल रही। तुम नहीं बताओगे तो क्या मैं जान नहीं पाऊँगी।” साक्षी नें तनुज से कहा

“हाँ!! पर मैं बताकर तुम्हें परेशान नहीं करना चाहता था। वैसे भी तुम खुद ही बीमार हो परेशान हो इस पर अगर मैं तुम्हारा खयाल नहीं रख सकता पैसे नहीं ला सकता तो कम से कम तुम्हें एक हल्की मुस्कान तो दे सकता।” तनुज नें कहा

“हाँ दिया तो तुमने बड़ी अच्छी सी मुस्कान परी के गाल पर अभी भी चिपकी है वो देख लो।“ साक्षी नें गंभीरता से कहाँ

“शर्मिंदा हूँ मैं अपने किए पर।“ तनुज नें सफाई में बस इतना सा बोला

तनुज नें आज ठान लिया की पूरी बात साक्षी को बता देगा। तनुज नें बोलना शुरू किया। कल मनीष आया था दुकान पर हाल-चाल लेने। अरे मनीष(लंदन वाले) तनुज नें साफ किया। मैंने भी उसको अपनी दिक्कत बताई। मनीष नें बात को बारीकी से आज समझाया की क्या तनुज आजकल ऑनलाइन रीचार्ज की दुनिया में तुम ये धंधा खोल कर बैठे हो। अब तो लोग इंटरनेट से घर बैठे अपने कार्ड से रीचार्ज कर लेते है।

“घर बैठे रीचार्ज कर लेते है। मनीष क्या मज़ाक कर रहे हो।“ मैंने उत्तेजना में पूछा

हाँ यार देखो कुछ बड़े ऑनलाइन रीचार्ज जैसे पेटीएम, फ्रीचार्ज, मोबीक्विक बड़े आसानी से और सरलता से रीचार्ज के ऑप्शन दे रहे वो भी घर बैठे। फिर कोई तुम्हारे यहाँ क्यूँ आएगा। साथ ही साथ वो कूपन भी देते कुछ कंपनियों के साथ उनकी करार है। उन कंपनियों से खरीददारी करने पर छूट भी मिलती।

“मनीष मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा। अब तुम बोल रहे हो तो सब होता होगा। लेकिन इन बड़े लोगों के आने से देखो हमारी माली हालत कैसी हो गयी है।“ मैंने कहा

साक्षी चुपचाप सब सुनते जा रही थी।

“हाँ तनुज बात तो सही है पर इतना ध्यान कौन देता। लोग अपनी सहूलियत देखते बस। अच्छा तनुज मेरे लायक कोई सेवा होगी तो बताना। अभी थोड़ा जल्दी में हूँ। संकोच ना करना तू मेरा जिगरी यार है बस इतना याद रखना।“ मनीष नें मोबाइल कान में लगते वहाँ से चल दिया

“ये सब ही है साक्षी दिक्कत। अब मैं क क क”

साक्षी नें तनुज की बात बीच काटते हुए टोका, “दिक्कत क्या है। मेरे पास एक उपाय है। जिससे तुम्हारी सारी तो नहीं पर कुछ उलझाने दूर हो जाएंगी। लेकिन हिम्मत रखना होगा”

“बोलो साक्षी” तनुज नें हुंकारी भर दी।

“तुम रीचार्ज का धंधा छोड़ दो ना।” साक्षी ने दो टूक कहा

इतना सुनते तनुज के हाथ पाँव सुन्न हो गए। आँख धूधलाने लगी मानो किसी गहरी सोच में डूब गया हो तनुज।

“साक्षी वो सिर्फ दुकान नहीं है मेरे लिए धरोहर है। भैया के चलाते थे उनकी यादें है। इसीलिए दुकान का नाम अम्मा के नाम पर रखा है। इतनी सारी यादों को दफन कर दूँ। पगली पाप करवाएगी तू। ना नहीं होगा मेरे से ये।“ तनुज नें फैसला सुना दिया

“मेरी बात तो सुनो। बस काम बदलने को कह रही हूँ ना नाम ना दुकान। थोड़ी मदद मनीष भैया से ले लो उन्होने कहा है ना जरूरत पे याद करना। बाद में उनका उधार चुका देंगे।” साक्षी नें अपनी बातों में बारीकियाँ जोड़ दी

तनुज को मनीष से पैसे मांगने में ही संकोच होगा। यही सोचकर उनसे गर्दन तो हिलाई पर साक्षी समझ गयी थी तो संतुस्ट नहीं।

बात चीत में सुबह आ धमकी पता ही नहीं चला। तनुज घर से निकला दुकान जाने के लिए पर चौराहे पर आकर रुक गया। उसके कदम डगमगा रहे थे मनीष के घर को मुड़े या फिर अपनी पुरानी किस्मत को गले लगाए। इस उधेड़बुन में उसनें करीब चालीस मिनट लगा दिये। साथ ही उसके आँखों के आगे हर मंजर चलते जा रहे थे। लेकिन घर से निकलते वक़्त उसने परी के गालों पर अपनी उँगलियों की मोहर देखी थी वो ओझल नहीं हो रही थी। आखिरकार चल दिया तनुज मनीष के घर।

मनीष नें तनुज की मदद कर दी होगी। तनुज एक नया धंधा शुरू भी कर लिया होगा। साथ ही उसका धंधा अच्छा भी चला होगा। तनुज-साक्षी-परी फिर खुशहाल हो गए होंगे शायद। तनुज अपनी उधारी भी चुका दिया होगा। पर क्या हम एक छोटा सा काम नहीं कर सकते। रीचार्ज के लिए ऑनलाइन माध्यम चुनने से बेहतर छोटे विक्रेताओं से रीचार्ज नहीं करवा सकते। कर सकते है एक छोटी सी पहल बड़े काम कर सकती है।

सोचिएगा ज़रा

छोटी सी पहल |  लघु कथा
मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)

More Stories Website: http://www.misraraahul.com/stories.html

सोमवार, 13 जुलाई 2015

इतने खास हो मेरे



तुम दूर कहाँ हमसे इतने पास हो मेरे,
रोज ख्वाबों मे आते इतने खास हो मेरे।

रात होती काली दिल डर सा जाता है,
उसमे जुगनू सजाते इतने खास हो मेरे।

अकेली तितली सी उड़ती जिंदगानी में,
तुम विश्वास जगाते इतने खास हो मेरे।

मेरे इर्द-गिर्द बस महकती तबस्सुम तेरी,
ऐसा एहसास दिलाते इतने खास हो मेरे।

©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल
(१३-जुलाई-२०१५)(डायरी के पन्नों से)


शनिवार, 27 जून 2015

पुरानी लिबास



पुरानी लिबास पहनकर निकल गए,
हम गलियों से मिलकर निकल गए।

आदाब करती है बातें खतों में उलझी,
हम लिफाफों को मनाकर निकल गए।

दूर जाऊँगा तो याद आएगी ना तेरी,
तस्वीर झोले में छुपाकर निकल गए।

ये फिजाएं आज तक गुलाम है तेरी,
उम्मीद-ए-चिराग लेकर निकल गए।

जीने की तस्सवुर नहीं होती बिन तेरे,
गुजारिश अपनी बताकर निकल गए।

गज़ल | खामोशियाँ | २६-जून-२०१५
मिश्रा राहुल | ब्लोगिस्ट एवं लेखक


शुक्रवार, 29 मई 2015

यादों का बागीचा


बगीचे के टिकोरे लद गए है। चल चलते है ना बगीचे मैं अपनी गुलेल निकालूँगा। हाँ मेरी जान सुपर-गुलेल। उसी से तो तुझे इम्प्रेस किया था। फिर निशाना लगाऊँगा खरीद कर लाया हूँ दस कंचे। प्रॉमिस 10 मे से तेरा 8 हिस्सा होगा। मैं फिर पेट दर्द का बहाना बनाकर तुझे पूरा दे दूंगा।

मन होता कभी सिखाऊँ तुझे गुलेल चलाना। जाइसे शोले में धर्मेंदर सिखाता नहीं बसंतीया को, बिलकुल उसी टाइप। यही सब सोच ही रहा था सुनील की एक टिकोरा उसके सर पर आ गिरा और मीठी नींद से जागा दिया। आज दिन काफी बदल गया है। ना अब नानी के यहाँ जाना होता ना ही अब मेरा निशाना उतना पक्का।

सलोनी भी गुम हो गयी इतिहास के सुनहरे पन्नो में। नानी का खपड़ैल कबका बिखर चुका है। बागीचे से लौटकर सलोनी के मुहल्ले की गली को ताकता सुनील काफी देर बैठा रहा। पर सलोनी कहाँ आने वाली वो तो महफ़ूज है आज भी छुटकी सी दो चोटी लाल फीते से बाधे किसी पुरानी यादों के बागीचे में।
_________________________
यादों का बागीचा - मिश्रा राहुल
©खामोशियाँ-२०१५ | २९-मई-२०१५

शुक्रवार, 22 मई 2015

मुझमें समा ना



छोड़
ना दलीलें
दुनियादारी की।

तू
अपना हक
जाता ना,

तू
फिर से
मुझमें समा ना।

दो बातें
पुरानी करनी।
दो रातें
साथ जगनी।

कुछ
खिस्से फिर
बतला ना।

तू
फिर से
मुझमें समा ना।

दुनिया
परायी सी
लगती है।

तन्हा
सतायी सी
लगती है।

तू
बातों का
जादू चला ना।

तू
फिर से
मुझमें समा ना।

रोज
खोजता हूँ
वो अक्स तेरा।

कितना
प्यारा सा
खिलखिलाता चेहरा

तू
खुल के
सब बता ना।

तू
फिर से
मुझमें समा ना।

©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल | २२-०५-२०१५

बुधवार, 20 मई 2015

प्रेम का क्रीम बिस्कुट



दो
जुड़वे जोड़े,
बिलकुल
एक ही शक्ल के।


एक दूसरे
के इतने करीब
कि फर्क ही
ना बता पाए कोई।

दोनों
के बीच
जमी रहती
ताउम्र
प्रेम की
मीठी क्रीम।

देखा होगा
आपने कई रोज
ऐसा
प्रेम का क्रीम बिस्कुट।
_______________
©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल

मंगलवार, 19 मई 2015

ज़िंदगी की गाड़ी



प्रेम....लगाव...स्नेह....

तीनों पर्यायवाची है एक दूसरे से लगाव स्नेह उत्पन्न करता जिससे प्रेम बढ़ता जाता। प्रेम ना तो खरीदा जा सकता ना ही जबर्दस्ती किसी से करवाया जा सकता। वो तो स्वमेव हो जाता। अचरज होता कभी-कभी दुनियादारी की दो-धारी व्यवहार को देखकर।

दुनिया चलती ही प्रेम की गाड़ी पर है जिसके चार पहिये होते।
1. पहला भरोसा - भरोसा वो पहिया है किसी गाड़ी जिसका स्टेप्नी नहीं होता क्यूंकी उसका रिप्लेसमेंट नहीं होता।
2. दूसरा उम्मीद - उम्मीद के बिना प्रेम की गाड़ी खिसक ही नहीं सकती। बस ठहर सी जाती है।
3. तीसरा समर्पण - समर्पण होना चाहिए। समर्पण पूरक चक्का है। दोनों बिना असंभव कड़ी।
4. चौथा और अंतिम है स्नेह - स्नेह पर ही पूरी दुनिया टिकी है। स्नेह वो शब्द है जो समेत लेता असंख्य शब्दों व्यवहारों को।


कुछ बातें जादुई होती है। जिसका प्रत्यक्ष रूप से देख पाना असंभव है पर आभासी होने के बावजूद ये बहुत ज्यादा प्रभावित कर जाती। इंसान को।

सोचिएगा जरा।

- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)

गुरुवार, 14 मई 2015

वो आखिरी मुलाक़ात - लघु कथा



"Meet Me at Gol Park...Important बात करनी" Suhani Text Recieved

बड़ी देर तक दोनों में कुछ भी बातें ना हुई। आखिरकार समर्थ नें हंसकर अपनी कोशिश करने के हाथ बालों को सहलाने लाया।

हाथ झटकते हुए सुहानी नें कहा, "थोड़ा हद में रहो। I am not your assets..Got it...Mr. Samarth..."

समर्थ नें बड़ा अचंभित होकर सुहानी को एक टक देखने लगा। फिर अपना हाथ हौले से हटाकर अपने चेहरे को ढाँप लिया। कुछ देर तक सोचा असल में पिछले पाँच साल में ये पहली बार था जो सुहानी नें इतना rudely बात किया था। समर्थ के हाथ जाने कितने यादों की खून से सने, भीगे हुए मालूम पड़ रहे थे। उसको समझ नहीं आ रहा था कल तक तो सब ठीक था आज अचानक इतनी दिक्कत कहाँ से हो गयी।

"और ये इमोश्नल ड्रामा बंद करो। मेरा दिमाग खराब हो जाता। पागलपन अपने पॉकेट में रखा करो।" सुहानी नें गुस्से में कहा

पर समर्थ के आँसू कहाँ रुकने वाले थे। शायद इतना मजबूत लाइफ़स्टाइल का समर्थ खुद के यादों के आगे असमर्थ कैसे हो जाता।

"मैं रो नहीं रहा हूँ बोलो कौन सी बात करनी" समर्थ नें आवाज़ में जोर लगते बोला
"हाँ तो सुनो। तुम्हारे साथ रहकर मेरी ज़िंदगी कैद हो गयी है। हर चीज का हिसाब देना पड़ता। कहाँ जाती हूँ क्या करती हूँ सब कुछ। ये सब से मैं अब पक चुकी हूँ। सो तुम मेरे बगैर जीना शुरू कर दो। ना तुम्हें दिक्कत ना मुझे दिक्कत।" सुहानी से दो टूक सा जवाब उसके मुंह पर दे मारा

"अरे ऐसा कहाँ है। कौन किसकी आजादी छीन रहा। मैं तो तुम्हारा खयाल रखने की वजह से ऐसा कहता रहता हूँ। रूहानी प्लीज इतना rude ना हो हम अच्छा नहीं लग रहा। जो वजह है वो बताओ ना मेरा दिल नहीं मान रहा।" समर्थ नें हबसते हुए कहा

Care My Foot...तुम सब care का हवाला देकर हम लड़कियों की आजादी पर डाँका डालते हो। और इस मुलाक़ात को आखिरी समझना दुबारा मेरे से कांटैक्ट करने की कोशिश भी मत करना। मैं तुम्हारी शक्ल नहीं देखना चाहती।

I Hate You ... I Hate You .... I Hate You

सुहानी...सुहानी...एक बात मेरी भी सुन लो ... चिल्लाता हुआ समर्थ उसके पीछे भागा पर सुहानी नें अपना बैग उठाया और बिना पीछे एक बार भी मुड़े सीधा चलती गयी। उसके कदम तेज और तेज चलते जा रहे थे। मानो वो किसी दायरे से बाहर भागने की कोशिश में हो।

समर्थ बैठ गया। उसको कुछ बातें समझ नहीं आ रही थी। उसको सारी बातें एक साथ रील दर रील घूमने लगी। शायद ये वही पार्क था जहां से उसकी नई ज़िंदगी नें करवट ली थी। उसको जीना पहाड़ लगने लगा था। अचानक से सुहानी का व्यवहार उसको पच ही नहीं रहा था। क्यूंकी पाँच साल इतना कम समय न होता की कोई एक दूसरे को जान-पहचान ना पाए। फिर भी जो हो रहा था उसपर वो विश्वास कैसे ना करे। अजीब सा असमंजस में समर्थ कभी अपना हाथ दीवाल पर मार रहा था तो कभी पाँव जमीन पर पटक रहा था।

दुश्मनों से तो लड़ा जा सकता पर यादों से लड़ना आसान काम कहाँ।

पर ये mystery कहाँ ज्यादा देर टिकने वाली थी। समर्थ थोड़ा शांत हुआ तो देखा एक रंग-बिरंगा कार्ड उसके बगल में गिरा हुआ था।

सुहानी त्रिवेदी वेड्स अभिलेख शुक्ला। बस बाकी माजरा समर्थ के आगे आईने के समान साफ था। सुहानी का बदलाव इसीलिए था कि वो मेरे दिल में नफरत भर सके। वो धीरे धीरे पार्क से निकलने लगा। तो देखा सुहानी वही बैठी रोए जा रही है।

सुहानी नें समर्थ को नहीं देखा। समर्थ नें जल्दी से कार्ड अपने शर्ट में डाल दिया।

सुहानी....एक बार सुनो तो मेरी बात सुन लो....समर्थ नें फिर आवाज़ लगाई।

समर्थ की आवाज़ सुनकर सुहानी अपने आँसू पोछते हुए झट से पीछे घूमी और बोली...."गधे... नालायक...तुम्हारे भेजे में कोई बात आसानी से आती है की नहीं। मैं तुमसे प्यार नहीं करती। नहीं करती नहीं करती।"

"तो किससे करती हो प्यार अभिलेख शुक्ला से", समर्थ नें कार्ड दिखाते हुए बोला।

अब सुहानी को रोकना नामुमकिन था। उसके आँसू अब समर्थ के आगे ही बिखर पड़े। सुहानी लिपट गयी समर्थ से। बस दोनों के आँसू नें ही जाने कितने सवालों के जवाब खुद ब खुद दे दिये।

I will love you forever....जहां से कहानी शुरू हुई थी आज शायद वही पर आकर थम गयी....थम जाना कहना थोड़ा गलत होगा।

प्यार थमता नहीं। रुकता नहीं चलता जाता है। बस वो मुलाकात जरूर आखिरी थी।
_______________________________
वो आखिरी मुलाक़ात - लघु कथा
©खामोशियाँ - २०१५ | मिश्रा राहुल

रविवार, 10 मई 2015

तस्वीरें


यादें रूह को अंदर से इतना खोखला बना देती,
खुद ही तस्वीरों से निकलकर रास्ता बना देती।

इंसान गायब हो जाता इस अचानक दामन से,
कीमती होकर जिंदगी इतना सस्ता बना देती।

एहसास इतना पलता रहता उन पुराने खतों में,
जवाब कितने रोज लिखकर वास्ता बना देती।

चुपके से माफी मांग रहे खुले गुलाबी लिफाफे,
हल्की सी होकर भी यादों का बस्ता बना देती।
__________________
©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल | १०-मई-२०१५

Tu Yaad Aayi Happy Mother's Day - A Film By The Maestro Productions


Mother's Day ithink it should not be confined to a single day. This is magical nudge which everybody should feel round the clock...

You very well know what your MOM wants from you...As Person changed the Behavior changes But the MOM is Universal She can't change her demands are same...!! 

गुरुवार, 7 मई 2015

याद


बनके याद तुझसे अपने ख्वाबों में मिलता रहूँ,
चाँद को बनाकर आईना मैं हर रोज सजता रहूँ।

अजीब सुकून दे जाती तेरी तबस्सुम संदली सी,
लेकर तेरी ये मोहोब्बत मैं हर रोज़ महकता रहूँ।

लकीरें उलझी सी है उसका ज़िक्र तक ना करना,
कब तलक नजूमी से मैं हर रोज झगड़ता रहूँ ।

- मिश्रा राहुल

शनिवार, 2 मई 2015

हौसला



जलती राखों पर खाली पाँव ही चलते है,
कोयले के खदानों में सूरमा ही पलते है।

हौसलों की चिंगारी जलाई ऐसी उम्मीद,
हाथो में लेकर सूरज आँखों में मलते है।

चाँद पूरा हो या आधा फर्क नहीं पड़ता,
अकेली शब में जुगनू जेबों मे रखते हैं।

दिखाओ तो दो बस कहाँ है मजिल मेरी,
पाने की ख्वाइशें तो जन्नत की करते है।
________________________
हौसला | खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल

शुक्रवार, 1 मई 2015

गुंजन


गुंजन करती है हर साँझ ख्यालों की ओट में,
तैरता हूँ मैं भी डूबकर छोटे यादों की बोट में।

चुनचुन कर कीमती लम्हे पुराने लिफाफे से,
छापता जाता हूँ हर रोज कागज की नोट में।

©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल

गुरुवार, 30 अप्रैल 2015

बर्थड़े स्पेशल



खुशियों के बहाने हम खोज लाएंगे,
हम आपको हसाने हर रोज आएंगे।

कभी दराजों के पुर्जों में खोज लेना,
तस्वीरों से लिपटे हर रोज आएंगे।

यादों के इलाकों में गुल हैं जितने,
उतनी ही कलियाँ हर रोज लाएंगे।

ख्वाइशें लिख रखी हैं हमने कहीं,
लेकर सारे ख़्वाब हर रोज आएंगे।

- बर्थड़े स्पेशल - मिश्रा राहुल
_________________________

Happy Birthday Gunjan

All the Blessings and Happiness in your ways :) 

रविवार, 26 अप्रैल 2015

उम्मीदों का भूकंप



हर शब
कई ख्वाब टूटते।
हर पल
यादों की इमारत ढहती।

उम्र भर की कमाई,
एक ही
पल में बिखर जाती।

दबे रहते
मलबे तले
लाखों एहसास।

तड़प कर
दम तोड़ते,
जाने कितनी
फरियादें।

ऐसे तो
हर रोज ही
आता है
उम्मीदों का भूकंप।

मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

रहमत के फतवे



रहमत के फतवे लेकर दिखाया ना करो,
प्यार किए तो किए पर जताया ना करो।

मुडेरों पर बैठा करते ये काठ के कबूतर,
चिट्ठियों के लिए उन्हे भगाया ना करो।

इम्तेहाँ लेती रहेगी हर परग ये जिंदगी,
आँखें नम करो पर इसे बताया ना करो।

गुनाह तो बहुत हुए है तुमसे भी सोचो,
हर खता की दरख्वास लगाया ना करो।

दास्ताँ हैं तो उसे लिखकर रखना कहीं,
कागज चुनकर हर रोज छिपया ना करो।
______________
रहमत के फतवे (१४ - अप्रैल -२०१५)
©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल

बुधवार, 8 अप्रैल 2015

ख्वाबों का घोसला



अकसर
दिल के
मुंड़ेर पर बैठती,
एक प्यारी सी गौंरैया।

चुन-चुनकर
चोंच से लम्हे,
बनाया करती।
छोटे-छोटे
ख्वाबों का घोसला।

खुशियों
को इर्द-गिर्द
बसाए निहारती।
पर अचानक
आ गया
गमों का तूफान।

बस
बिखर गया
उम्मीदों से सजाया
ख्वाहिशों का घोसला।

दिल
की गौरैया भी
गिर पड़ी
सूखी सतह पर।

तड़प रही
उसकी
आँखों के आगे।
उड़कर
जा रहे
यादों के फटे पुर्जे।

सुबह
सारे तिनके
इकट्ठा थे।
हवाओं ने
इतना कर दिया।

गौरैया
खिल पड़ी,
देखते ही देखते।
फिर बन गया
ख्वाबों का घोसला।
_____________
ख्वाबों का घोसला
©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल

जिद्दी-ज़िंदगी



बातें सारी आज भी उतनी ही सच्ची हैं,'
अक्ल उसकी अब भी वैसी ही कच्ची है।

ढूंढ कर लाती सारे मेले से अपनी मांगे,
ज़िंदगी जिद्दी सी एक छोटी बच्ची है।

खुशी में झूम-झूमकर सब को बताती,
गमों तालाब में गोते लगाती मच्छी है।

कभी-कभी अनर्गल दिल दुखा ही देती,
यकीन मानो ये दिल की बड़ी अच्छी हैं।
____________________

" जिद्दी-ज़िंदगी " | मिश्रा राहुल
©खामोशियाँ-२०१५ | ८-अप्रैल-२०१५

गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

यादों की गट्ठर



रोक लें तो ये कदम रुक भी जाएंगे,
पर उनके जैसा हम भी कहाँ पाएंगे।

सोच के जैसे दिल घबरा सा जाता,
यादों की गट्ठर लिए कहाँ जाएंगे।

जिंदगी नें ऐसे अपना बना लिया,
हंसी छोड़कर गमों में कहाँ जाएंगे।

रौनक तो अभी आई है चेहरे पर,
उन्हे खोकर हम भी कहाँ जाएंगे।
____________
©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से) (०३-०३-२०१५)

प्रेम की आधुनिकता


राजीव - सुरुचि | गिन्नी-कबीर | रोहन-जोया | विकास-नेहा । शुभम-आकांक्षा । सुमित-शिखा जैसे सैकड़ों आज भी जिंदा है, हर गली में हर मुहल्लों में बस नाम बदल-बदलकर। आँखों के इशारे से दिल के दरवाजे की दस्तक तक प्रेम होता है। दिन के चैन से लेकर रातों में ख्वाबों तक प्यार का पहरा होता है। बस दो मिनट की मुलाक़ात खातिर सैकड़ों मील चलकर जाना ही प्यार की परिभाषा होती। मुश्किल हो या खुशी सबसे पहले किसी को याद करना ही प्यार की आदतें होती।
प्रेम का अस्तित्व अगर समय रहते पता चल जाए तो बात ही क्या हो। अगर वक़्त करीब रखता तो कद्र ना होती और दूरी बढ़ जाती तो वापस पाना उतना आसान नहीं होता।
खैर प्रेम जरूरी है। लगाव जरूरी है। चाँद-सितारे तोड़ना एक मायना है की हम किस कदर तक आपके एक आवाज़ पर कुछ भी ला सकते।
प्यार ऐसा बंधन है जो अचानक से होता है। अचानक से कोई इतने करीब होता की बिना उसके जीना दुश्वार हो जाता। एक मिनट के लिए भी ओझल ना होने का मन होता।
फिर भी दुनिया चका-चौंध में आजकल रिश्तों की टूटने का खबर सुनता हूँ तो बड़ा दुख होता है। दर्द होता है की कहीं लोगों का प्यार-मोहोब्बत से विश्वास ना उठ जाए। कहीं कोई किसी पर एतबार करना ना छोड़ दे। कुछ बातें ईश्वरी है वो कायम रखना जरूरी।
_________________
प्रेम की आधुनिकता | मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)

शुक्रवार, 27 मार्च 2015

प्रेम कस्तूरी


प्रेम...लगाव...उम्मीद...एहसास।
प्रेम धुरी है। जिसके इर्दगिर्द जीवन पर्यन्त लगाव व उम्मीद घूमघूमकर सुकून का एहसास कराती।
लगाव और उम्मीद का हावी होने से कभी कभी दोनों प्रेम धुरी से पृथक होकर बाह्य बल के सामावेश में आ जाते।
यही से विकार शुरु हो जाता। एहसास का दर्पण धुधलाने सा लगता। रिश्ते भी मृग मरीचिका तलाशते घूमते पर कस्तूरी तो स्वयं उसी लगाव-उम्मीद में है। जरूरत है बस एक तराजू की जो दोनो के विस्थापन को सुनियोजित करता रहे।
__________________
प्रेम कस्तूरी | मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नों से)(२५-मार्च-२०१५)

रविवार, 22 मार्च 2015

ओवरटाइम


ओवरटाइम करते करते रात के 9 बज गए थे। शोभा नें बाहर झांक कर देखा। ऑफिस के बाहर की गालियां एकदम सूनसान सी दिख रही थी। जल्दी से शोभा नें अपना सेलफोन निकाला पर ध्यान ना देने के वजह से वो भी लाल-बैटरी दिखा रहा था। जैसे ही उसने अपने दोस्त को फोन लगाने की कोशिश की फोन की चमकती स्क्रीन अचानक से मौन हो गयी।
दूर-दूर तक धीमे कदम से चलते हुए अपने दोनों हाथो को क्रॉस करके अपनी फ़ाइल सीने से लगाए सहमे हुए चली जा रही थी।

ऑटो-स्टैंड पर बड़ी देर इंतज़ार करने के बाद भी ऑटो नहीं मिला। शोभा अकेले पैदल घर जाने का जोखिम उठा नहीं सकती थी। वो कोसे जा रही थी, कभी खुद को कभी बॉस को। एक दिन काम नहीं करती तो क्या हो जाता। आज अगर कुछ हो गया तो उसका क्या होगा। जाने कितने सारे ख्याल उसको एक-बाद एक घेरे जा रहे थे। वो किसी अंधेरे घने जंगल में जैसे फंस गयी थी। आज कुछ ठीक नहीं लग रहा था उसको।

तभी पीछे के तेज़ हॉर्न नें शोभा को अपने सोच से बाहर आने को मजबूर कर दिया। तीन लफंगे दोस्त उसके बगल से बड़ी तेज़ मोटरसाइकल चलाते हुए गुजरे।

शोभा को तो जैसे करेंट लग गया। सन्न सा हो गया उसका पूरा बदन। पर किसी तरह उसने खुद को मजबूत किया। पर उसने देखा मोटरसाइकल कुछ दूर जाकर रुक गयी थी। साथ ही साथ यू-टर्न लेकर उसके पास आते जा रही थी।

इधर मोटरसाइकल पास आते जा रही थी उधर शोभा की सांसें तेज़ भागते जा रही थी। उसके कदम और तेज़ हो गए मोटरसाइकल की आवाज़ शोभा की कानो को चुभते जा रही थी। अब शोभा लगभग भाग रही थी और तेज़ बहुत तेज़ बिना पीछे देखे सीधा और सीधा।
अचानक लाइट बूझ गयी मोटरसाइकल रुक गयी इधर शोभा के कदम भी थम गए।

पीछे से एक आवाज़ आई

"शोभा... हैलो....!!"

शोभा को अपना नाम किसी अजनबी से सुनकर बड़ा अजीब सा लगा। उसने पलट कर देखा तो आयुष खड़ा था।

"ओह आयुष तुम....!!"....शोभा झट से उसके गले लगकर फफकने लगी। आज तुम ना होते तो क्या हो जाता।

"शोभा...कूल डाउन....रिलैक्स कुछ नहीं होता।" आयुष नें कहा

हर बार भगवान किसी ना किसी को आयुष बनाकर जरूर भेजते। उसने शोभा के आँसू को पूछते हुए कहा।
________________________________
ओवरटाइम | मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से) (२२-मार्च-२०१५)

शुक्रवार, 13 मार्च 2015

सजा



सजा गलतियों की तुम दे ही दिया करो,
खुशी लेकर गम मुझको दे ही दिया करो।

गफलत में क्या जीते रहे हर दिन अब,
आँखों के चटखारे रोज दे ही दिया करो।

गुरूर सा हो जाता खुद पर कभी-कभी,
मौके ऐसे ज़िदगी कभी दे ही दिया करो।

चेहरा खुद का बदलने लगा हूँ आजकल,
अक्स आईने में कभी दे ही दिया करो।

लम्हा ठहर सा गया आगे बढ़ता ही नहीं,
अधूरे वादों की टोकरी दे ही दिया करो।

मंज़िलें भी अलग अब रास्ते भी अलग,
नक्शों में कुछ चौराहे दे ही दिया करो।
___________________
" सजा "
©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से) (१४-मार्च-२०१५)

सब ठीक है



दिन मुंह
चिढ़ाता रहता,
पूछता कैसे हो
आजकल तुम।

मैं भी
चुप सा रहता
कुछ
देर बाद कहता।

जैसा
छोड़ गया था
एक अरसे पहले
बस वैसे ही हूँ।

बस थोड़ा
घमंडी हो गया था।
बस थोड़ा
गुस्सैल हो गया था।

अब
धरा-तल पे हूँ।
नहीं उड़ना ऊंचा।
नहीं हँसना
गला फाड़कर।

अब
शांत सा है,
सब कुछ तो।
अब
शिथिल सा है
अरमान अपना।
सब खुश
पर मन में हलचल।

थोड़ा
निर्जीव सा
हो गया हूँ
बाकी
ए ज़िंदगी
सब ठीक है।
__________
©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से) (१३-मार्च-२०१५)

अचानक



अचानक से कितना कुछ बदल गया,
बदली हटी सूरज फिल से खिल गया।

ज़िंदगी अपनी जेबों में कहाँ टटोलते,
फलक से टूटा तारा आज सिल गया।

इतना मदहोश क्यूँ होता तू फिर से,
भींड में फिर कोई सपना मिल गया।

खेल ही खेलते बीत गयी उम्र अपनी,
यादों के खेतों में उम्मीद हिल गया।

डायरी के पन्ने भरेंगे और क्या होगा,
कलम सूखती नहीं वो बस दिल गया।
________________
©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से) (१३-मार्च-२०१५)

बुधवार, 11 मार्च 2015

पुरानी तस्वीरें



यादों के बस्ती की बस इतनी सी तो पहचान है,
चार दिन की दुनिया में दिल अकेला मेहमान है।

दर्द उठता ही रहता है हर मंजर में आज कल तो,
आँखों से उतरा उदास कतरा आज भी बेजुबान है।

गलत कहते है वो अजनबी बनकर मिला है मुझसे,
मेरी दुनिया तो उसके लिए जाने कबसे वीरान है।

पुरानी तस्वीरों में कितना कुछ छुपकर दबा होता,
गुम हुई वो दुनिया अपनी भी वहीं कहीं बेजान है।

प्यार के बदले इतना प्यार मिला कभी सोचा नहीं,
ख्वाबों में मिलते रहते उनका हम पर एहसान है।
___________________
पुरानी तस्वीरें
©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से) (११-मार्च-२०१५)

मंगलवार, 10 मार्च 2015

इश्क़-ए-गुब्बारे



दिल जिसको पुकारे उन्हे बुला लीजिये,
यादों के झूलों को फिरसे झुला दीजिये।

होंठों से बयान ना होते हैं कुछ फसाने,
आँखों से कुछ तीर फिरसे चला दीजिये।

हवा निकाल गयी रूठना-मनाना खेलते,
इश्क़-ए-गुब्बारे को फिरसे फुला दीजिये।

शह-मात कहाँ होती इस गज़ब खेल में,
वजीर को असलियत फिरसे बता दीजिये।

अकेले खोजोगे तो मिलेगा जरूर ही कोई,
पुराने दिये में उम्मीद फिरसे जला दीजिये।
______________________
" इश्क़-ए-गुब्बारे "
©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से)(११-मार्च-२०१५)

शनिवार, 7 मार्च 2015

नाराज़ चाँद



खिड़की
पर चाँद
अटक सा गया है।

हिलता नहीं
डुलता नहीं
गुस्से से धुआँ हैं।

मुंह फुलाए
नज़र घुमाए
बैठा है उदास सा।

कुछ
कहा-सुनी
हो गयी सितारों से।

बुझ गए
फ़लक के झालर
लापता है मनाने वाले।

कब
तक मानेगा
कब
तक जागेगा।

कुछ पता नहीं,
आज रात
देर तक होगी शायद।
आज बात
देर तक होगी शायद।
_______________________
©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से)(७-मार्च-२०१५)

गुरुवार, 5 मार्च 2015

हसरतें



कुछ हसरतें पूरी हुई भी तो कीमत ले गयी,
सारे ज़िंदगी की कमाई थी मेहनत ले गयी।

बस कुछ मुट्ठी भर ही थे अपने भी सपने,
उन्हे देखने की उठाई थी हिम्मत ले गयी।

अपना कहने से भी डरने लगा हूँ मैं अब तो,
हमारी बरसों की बनाई थी हुकूमत ले गयी।

हाथों में संजोएँ रखा था दुवाएँ जिसके लिए,
पुरानी बस्ती की सजाई थी अमानत ले गयी।

कलम चले भी तो गुनाह सा लगता अब तो,
टूटे अल्फ़ाज की सताई थी किस्मत ले गयी।
_______________________
©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से) (६-मार्च-२०१५)

बुधवार, 4 मार्च 2015

ज़िंदगी की सिग्नल



ज़िंदगी
भी कितने
सिग्नल क्रॉस
करती आगे ही बढ़ती।

लाल देख
रुकती नहीं।
हरे पर जरा
सहम सी जाती।

यादों
की चालान
काटे भी गर कोई।
तो उम्मीदों
की रिश्वत थमा
आगे बढ़ती जाती।

ये ज़िंदगी
भी कितने
सिग्नल क्रॉस
करती आगे ही बढ़ती।
_________________
ज़िंदगी की सिग्नल
©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से) (०५-मार्च-२०१५)

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

यादों से लड़कर



बदलते वक़्त में कौन खड़ा होता है,
नज़रों से गिर के कौन बड़ा होता है।

देखते है पुराने गुज़रते लम्हे दूर से,
पास होकर वहाँ कौन पड़ा होता है।

ज़िंदगी के पहिये पर बढ़ते ही जाते,
यादों के ताबूत में कौन गड़ा होता है।

समझौता कर लेते अपने दिलासों से,
ख्वाबों से लड़कर कौन कड़ा होता है।
__________________
यादों से लड़कर (२६-फरवरी-२०१५)
©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल

रविवार, 15 फ़रवरी 2015

Love - A Magical Sensation - An Experiment By Maestro Productions



What is Love..??


Everyone has its own answer.. What they feel..?? What they do..?? What they Want..??
How they make up their partner's mood when he/she get angry..??


We, the Maestro Team, ask this questions to public to know their actual views about LOVE..

The Half Coffee (Valentine's Day Special) - A Film by Maestro Productions


This Valentine's Day we're here with Sweet Emotional Short Film
A Story of Two Couples Rohan - Zoya..Half Coffee Justify its way that there is missing someone to take a other Magic Sip..!!
The Most Awaited Romantic Movie is under editing process...Thanks to Maestro Team for their dedication non stop Hardwork to provide you enough entertainment as well Flavored Brilliant Message...!!!
Rest You Watch the Movie...!!!

रविवार, 8 फ़रवरी 2015

गुलाबी सपने



सपने गुलाबी आँखों में उतर जाएंगे,
हम चाहेंगे तो यादों में संवर जाएंगे।

वक़्त बेरहम हैं गुज़रता ही जाएगा,
गर सोचेंगे तो ख्वाब बिखर जाएंगे।

नजूमी मिले तो पूछ इत्तिला करना,
वो लकीरों में कहाँ कैसे गुज़र जाएंगे।

निकलते है लोग रोज़ घरों से अपने,
रात आते फिर किसी सफर जाएंगे।

उम्मीदें काफी लगा ली ज़िंदगी से,
गुलाब बोये तो काटें निखर आएंगे।

_______________________
©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से) (७-फरवरी-२०१५)

रविवार, 25 जनवरी 2015

फासला


कभी तुझमें तो कभी मुझमें पलता है,
ये फासला भी तो कुछ ऐसा चलता हैं।

दूरियाँ वजह होती नहीं दूर होने की,
एहसास मन का कुछ ऐसा बोलता है।

ओढ़ता हूँ तो पाता बहुत करीब मेरे,
दिल के पास कोना ऐसा मिलता है।

बस एक तू ही तो जो रूबरू है मुझसे,
वरना हमसे जमाना ऐसा जलता है।

©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से) (२५-जनवरी-२०१५)

बालकनी पे चाँद



यादों की छांव के गुल खिलते रहेंगे,
चाँद बालकनी पे रोज़ मिलते रहेंगे।

वक़्त चलता रहता है रुकता कहाँ,
ख्वाइशों के बाल रोज़ उड़ते रहेंगे।

ज़िंदगी मुट्ठी भर धूप लिए घूमती,
मोम के बाजू हर रोज़ जलते रहेंगे।

चेहरे बदल कर आजमाया करती,
साँचे ख्वाबों के रोज़ खुलते रहेंगे।

©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से) (२५-जनवरी-२०१५)

शनिवार, 17 जनवरी 2015

ज़िंदगी की नाव



चलें आज
ज़िंदगी के भंवर में
यादों की नाव उतारे।

उदास
लम्हों को
बीच से फ़ोल्ड* करे।

टूटे
ख्वाबों को खुद
अटैच* कर पास लाए।

अपने
वादों को
ऊपर खुद चढ़ा आए।

बस
वादों को
लम्हों में
अल्टी-पलटी करे।

ज़रा सा
खोल दें बाहें
तैयार खड़ी आपकी नाव।

चलें आज
ज़िंदगी के भंवर में
यादों की नाव उतारे।
___________________
ज़िंदगी की नाव | मिश्रा राहुल
©खामोशियाँ-२०१५ | १७-जनवरी-२०१५

शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

आ चले - A Maestro Productions Presents



सुने तो ज़रा:
आ चले - A Maestro Productions Presents
Album : Khamoshiyan | Lyrics : Misra Raahul |
Singer & Composer : Vishaal Mishra

पुरानी नज़्म

कोई पुरानी
नज़्म उठा लूँ...
या नई
गज़ल लिख दूँ...!!

फिर
काले गुब्बारे
पे नक्काशी करूँ,
या नए
सैन्यारे खरीद लाऊं...!!

फिर
उम्मीदों की
एक धूप खोजूँ...
या नए
नज़ारे ढूंढ ले आऊँ...!!

फिर
पॉकेट से
कोई जुगनू निकालूँ,
या नए
सितारे खोज ले आऊँ...!!

बता ज़िंदगी
कोई पुरानी
नज़्म उठा लूँ...
या नई
गज़ल लिख दूँ...!!

©खामोशियाँ-२०१५ // मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से) (८-जनवरी-२०१५)

बुधवार, 7 जनवरी 2015

एखट-दुक्खट

कभी
आ ज़िंदगी
एखट-दुक्खट खेलें।

खांचे खींचे,
पहला पूरा,
दूसरा आधे
पर कटा हुआ।

आता है ना??
तुझे पूरा
खांचा खींचना।

गोटी फेंकें
बढ़ाएँ चाल।
चल जीतें
घर बनाए ।

अपने
घर में
आराम से रुकें
सुकून पाए।

फिर
जल्दी निकल दूसरे
के पाले फांग जाए।

कभी
आ ज़िंदगी फिर से
एखट-दुक्खट खेलें।

©खामोशियाँ-२०१४॥ मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से) (०४-जनवरी-२०१५)