बड़ी खामोसी से बैठे हैं फूलो के धरौदे....जरा पूछ बतलाएंगे सारी गुस्ताखिया....!!!______ प्यासे गले में उतर आती....देख कैसे यादों की हिचकियाँ....!!!______ पलके उचका के हम भी सोते हैं ए राहुल....पर ख्वाब हैं की उन पर अटकते ही नहीं....!!!______ आईने में आइना तलाशने चला था मैं देख....कैसे पहुचता मंजिल तो दूसरी कायनात में मिलती....!!! धुप में धुएं की धुधली महक को महसूस करते हुए....जाने कितने काएनात में छान के लौट चूका हूँ मैं....!!!______बर्बादी का जखीरा पाले बैठी हैं मेरी जिंदगी....अब और कितना बर्बाद कर पाएगा तू बता मौला....!!!______ सितारे गर्दिशों में पनपे तो कुछ न होता दोस्त....कभी ये बात जाके अमावास के चाँद से पूछ लो....!!!______"

बुधवार, 31 दिसंबर 2014

पुरानी साँझ



आज
पुरानी साँझ
फिर पास आई।

कभी
चुपके-चुपके
खूब चुगलियाँ
करती थी तेरी।

आज
हौले से
मेरे कानो में
कुछ बुदबुदाई।

सुनाई
ना दिया कुछ
हाँ सिसकियाँ कैद है।
कानो के इर्द-गिर्द
और थोड़े भीगे
एहसासों के खारे छींटे भी।

आज
पुरानी साँझ
फिर पास आई।
___________________
पुरानी साँझ - मिश्रा राहुल
©खामोशियाँ // (डायरी के पन्नो से)

सोमवार, 29 दिसंबर 2014

जेबों से खुशियाँ निकाले


आ चले
जेबों से खुशियाँ निकाले,
आ चले
वक़्त से कड़ियाँ निकाले।

अंजान बस्तियों
में घूम-घूमकर
वीरान कसतियों
में झूम-झूमकर।
दर्द की
साखों से मस्तियाँ निकाले।

आ चले
जेबों से खुशियाँ निकाले,
आ चले
वक़्त से कड़ियाँ निकाले।

ख्वाब कौन देखता
कौन देखेगा।
जवाब कौन ढूँढता
कौन ढूंढेगा।
गलियों के
सन्नाटों से परछाइयाँ निकाले।

आ चले
जेबों से खुशियाँ निकाले,
आ चले
वक़्त से कड़ियाँ निकाले।

हमदम हरकदम
साथ चलता रहेगा,
जानम जानेमन
याद करता रहेगा।
टूट कर
इरादों से तनहाईयाँ निकाले।

आ चले
जेबों से खुशियाँ निकाले,
आ चले
वक़्त से कड़ियाँ निकाले।
_____________________
जेबों से खुशियाँ निकाले - मिश्रा राहुल
©खामोशियाँ-२०१४ (२९-दिसम्बर-२०१४)

शनिवार, 27 दिसंबर 2014

फूटबाल ज़िंदगी


ज़िंदगी 
फूटबाल ठहरी...
पाले
बदल-बदलकर....
घिसटती रहती....!!

मंज़िल
के पास
पहुँचते ही,

एक जोर
का झटका
फिरसे पाले में
लाकर
खड़ा कर देता...!!

चलो
खुदा न खासते
मंज़िल
मिल भी जाए...
तो भी क्या...???

फिर
से वही
खेल खेलना
फिर से बीच में
परोसा जाना...!!!

मेरा कभी
एक शागिर्द
ना होता
होते ढेरों सारे...!!

मुझे मारकर
खुश होते
जश्न मनाते....!!!

मैं भी
खुश होता
उन्हे देखकर...!!

फिर किसी
अंधेरी कोठरी में
बैठा इंतज़ार करता

कोई आए
मुझे मारकर
खुद को सुकून पहुंचाए....!!!

ज़िंदगी
फूटबाल ठहरी...
पाले
बदल-बदलकर....
घिसटती रहती....!!

©खामोशियाँ - २०१४ // २८-दिसम्बर-२०१४

गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

वजूद



वजूद भी घट रहा धीरे-धीरे,
यादों से मिट रहा धीरे-धीरे..!!

रास्ता धुधला पड़ा बात लिए,
ख्वाब सिमट रहा धीरे-धीरे...!!

एक धूल लतपथ सांझ खड़ी,
कारवां घिसट रहा धीरे-धीरे...!!

मंजिल मिलेगी भी खबर नहीं,
डर लिपट रहा हैं धीरे-धीरे...!!

चेहरा बिखरा कई हिस्सों में,
वक़्त डपट रहा है धीरे-धीरे...!!

©खामोशियाँ-२०१४ // मिश्रा राहुल // २५-दिसम्बर-२०१४

शनिवार, 20 दिसंबर 2014

अधूरी कॉफ़ी - लघु कथा


दो रंग-बिरंगे मग में कॉफ़ी किसी का इंतज़ार कर रही थी। दोनों के धुए निकल एक दुसरे में घुल जा रहे थे। मानो बरसों के इंतज़ार के बाद कोई मिलने आया हो। वो हाथो में कप पकडे, जाने किस ख्याल में खोया था..यूँ कभी कॉफ़ी देखता तो कभी सेलफोन में कुछ तस्वीरों को उँगलियों पर घुमाते जाता...कॉफ़ी मग की डिजाइनिंग हू-ब-हू उसी चित्र से मिलती जान पड़ रही थी..पीछे की पढ़ी हरी-नीली टाइल्स भी..!!

वो अपनी कॉफ़ी पीता और चियर्स कर दुसरे सीट पर किसी से बात करता। उसको मनाता, समझाता प्यार करता। पर मैंने खुद करीब जाकर देखा वहाँ कोई नहीं था।

ये मालूम तो हो गया था कि बड़ा गहरा रिश्ता है उस जगह का उसके के साथ। उसके चेहरे के भाव घड़ियों की सूइयों पर चल रहे थे पल-पल बदलने को आमदा। ढेरों सामानों के बीच उलझा-उलझा सा था वो। उस लिफाफे में ऐसा क्या था जो उसके आँखों को भीगने पे मजबूर कर रहा था। कुछ बोतल बंद टुकड़े, कैप्सूल में उलझे सालों के पीले पन्नो में रोल किए।

उसको ना आज मौसम की फ़िक्र थी ना लोगों की। उसकी दुनिया बस उसी टेबल के इर्द-गिर्द सी थी। वो कुछ सोचता फिर लिखता। उसकी उँगलियों की हरकत से बखूबी दिख रहा था कि वो हर बार कुछ एक जैसे शब्द ही लिखता। काफी देर हो गए लेकिन दूसरा कॉफ़ी पीने वाला नहीं आया। उसकी कॉफ़ी मग उसके आँखों के झरने से पूरी तरह लबालब हो चुकी थी।

मुझे उससे पूछने की हिम्मत तो नहीं हुई पर होटल के मालिक से पूछा तो पता चला पिछले पांच सालों से आकाश दुनिया के किसी कोने में हो वो टेबल आज के दिन पूरे टाइम उसके और किसी निशा के नाम से बुक रहती। हाँ निशा मैडम अब ना आती पर उनकी पी हुई कॉफ़ी मग आज भी आकाश सर लेके आते।…
मैं कुछ बोल ना पाया बस सोचता रह गया.....और जुबान एक ही शब्द भुनभुनाते गए....!!
Love is Happiness...Love is Divine...Love is Truth...!!!

_________________________
अधूरी कॉफ़ी - लघु कथा
©खामोशियाँ // मिश्रा राहुल // (ब्लोगिस्ट एवं लेखक)

विरह



विरह
चेतनाशून्य मन...
कोलाहल है हरसू...!!

संवेदना धूमिल..
सामर्थ्य विस्थापित
मन करोड़ों
मंदाकिनियों में भ्रमण...!!

काल-चक्र में
फंसा अकेला मनुज,
जिद
टटोलता चलता...!!

विस्मृत होती
अनुभूतियों में
शाश्वत सत्य खोजता..!!

संचित
प्रारब्ध के
गुना-भाग
हिसाब में उलझा

स्वप्न और यथार्थ में
स्वतः स्पंदन करता रहता...!!

©खामोशियाँ-२०१४ // मिश्रा राहुल // १७-१२-२०१४

शनिवार, 13 दिसंबर 2014

वक़्त


वक़्त बदला नहीं तो क्या करे,
दिल सम्हला नहीं तो क्या करे....!!!

उम्मीदें थी बड़ी तम्मना भी थी,
दर्द पिघला नहीं तो क्या करे....!!!

रातों को तारें गिने हमने रोज़,
चाँद निकला नहीं तो क्या करे...!!!

जान निकाल दिए जान के लिए,
प्यार पहला नहीं तो क्या करे...!!!

आँखें भिगोई बातें याद करके,
दिल दहला नहीं तो क्या करे...!!!

उम्र बस सहारा ढूंढते रह गयी,
कोई बहला नहीं तो क्या करे...!!!

गैर ही रहा ताउम्र हर आईने से,
अक्स बदला नहीं तो क्या करे...!!!

©खामोशियाँ-२०१४ // मिश्रा राहुल // १३-दिसम्बर-२०१४

ज़िन्दगी की किताब



लिखी है
थोड़ी बहुत
हमने भी
ज़िन्दगी
की किताब

कुछ टूटे
फाउंटेन पेन*
कुछ लाल
धब्बे मौजूद हैं
पहले ही
पन्ने पर.....!!

तारीखे हैं,
बेहिसाब
एक बगल
पूछती हैं
ढेरों सवाल..!!

दर्ज़ हैं
सूरज की
गुस्ताखियाँ
दर्ज़ हैं
ओस की
अठखेलियाँ...!!

रिफिल*
नहीं
हो पाते हैं
कुछ रिश्ते,
तभी आधे
पन्ने भी
बेरंग से लगते .....!!

*Fountain Pen *Refill
©खामोशियाँ-२०१४ // मिश्रा राहुल // १३-दिसंबर-२०१४

बुधवार, 10 दिसंबर 2014

हाँ मैं गुस्सैल हूँ



हाँ मैं
गुस्सैल हूँ...!!

रोज
सपने अपने
खोजता हूँ...!!

रोज गैरों
में अपना
खोजता हूँ...!!

अपने छोड़
देते अक्सर
दामन मेरा...

मैं फिर
भी उन्ही
को खोजता हूँ...!!

किस हाल
में होंगे वो...
इसी बात
को पकड़
सोचता हूँ...!!

चिल्लाकर
झल्लाकर
फिर वापस
वहीँ को
लौटता हूँ...!!

हाँ मैं
गुस्सैल हूँ...!!

©खामोशियाँ-२०१४ // मिश्रा राहुल // १०-दिसम्बर-२०१४

मंगलवार, 9 दिसंबर 2014

धीरे-धीरे



कुछ ऐसे ही फिसलता है मंज़र धीरे धीरे,
कुछ ऐसे ही निकलता है खंजर धीरे धीरे....!!

सपने मौजों की तरह ही उठकर बिखरते,
आँखों में उतरता है समुन्दर धीरे धीरे....!!

बात जुबान की कुछ ऐसे टूटती जेहन में,
दिल ऐसे ही बदलता हैं बंजर धीरे धीरे....!!

लोग मोम के बाजू लगाए घरों से निकलते,
जिस्म ऐसे पिघलता हैं जर्जर धीरे धीरे....!!

टूटे फ्रेम में ऐसे चिपकी है तस्वीर बनकर,
यादों में ऐसे महकता हैं मंज़र धीरे धीरे....!!

©खामोशियाँ-२०१४ // मिश्रा राहुल // ०९-दिसम्बर-२०१४

शनिवार, 6 दिसंबर 2014

इश्क की सरजमीं



इश्क की सरजमीं पर अब दिखाई कौन देता हैं,
सब अपनी याद हैं लिखते छपाई कौन देता हैं....!!

वक़्त भी तो जरिया हैं समझ के खुद बदलनें का...
वफ़ा है नीम सी कडवी मलाई कौन देता हैं...!!

कभी चलती थी पुरवाई तो मैं भी राग गाता था,
अभी महफ़िल में भी चीखूँ सुनाई कौन देता हैं....!!

आँखों की छतरियाँ भी निकल आई इस मौसम में,
अब दिल की आग भी बरसे दुहाई कौन देता हैं....!!

खुद गुनाहों की सलाखों में लिपटकर देर तक बैठे,
ये धड़कन छूटना चाहे तो रिहाई कौन देता हैं....!!!

©खामोशियाँ-२०१४ // मिश्रा राहुल // ७-दिसम्बर २०१४

लूडो खेलती है



लूडो
खेलती है
ज़िन्दगी हमसे अक्सर....!!

पासे
फेंकते
किस्मती छः
लाने खातिर बेताब होते...!!

किस्मत
खुलती छः
आते भी तो तीन बार...!!

अपने लोगों
को काट उनके
सफ़र दुबारा शुरू करते...!!

वही रास्ते
वहीँ गलियाँ
दुबारा मिलती जाती...!!

कहाँ से
चोट खाकर
वापस गए...
कहाँ से
जीत की
बुनियाद रखे....!!!

हरे...लाल...
पीले...नीले...
सारे भाव
चलते साथ-साथ...!!

कभी
गुस्सैल लाल
जीत जाता...
कभी
शर्मीला नीला
ख़ुशी मनाता...!!

पीला
सीधा ठहरा
सबको भा जाता...!!
हरा
नवाब ठहरा
नवाबी चाल चलता...!!

दिन
होता ना
हर रोज़ किसी का
कभी
कोई रोता
तो कोई मनाता...!!

लूडो
खेलती रहती
ये ज़िन्दगी अक्सर...!!!

©ख़ामोशियाँ-२०१४ // मिश्रा राहुल // ०५-दिसम्बर-२०१४