भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
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गुरुवार, 28 मार्च 2013
शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2013
यादों को नज़ला...
चल रहे हैं मानो कुछ जानी पहचानी पुरानी गलियारे में जहा हर आवाज इतनी जानी पहचानी लगती...कुछ फूल दिए थे उसने निशानी की तौर पर लिए चल रहा हूँ उन्हें...ताकि दिख कर उन्हें अपनी पहचान बता सकू...!!!
चल रहे पुरानी बस्तियों में...!!
ठण्ड से पाव सिकोड़ते टटोल रहे...
पोटली में गर्मी के अश्क...!!
कैद कर रखा था हमने जिन्हें..
एक जमाने में लोगो से बचा के...!!
दो चार झुराए गुल पड़े हैं...
उनकी निशानी खातिर अब यहाँ...!!
उसे कुछ तो ओढा दे तुर्रंत...
वरना जम जाएंगे ठण्ड में...!!
नजला हो गया इन्हें देख...
कैसे सुडुक रहे ओस की गुच्छी...!!
छींकते ही बिखर जाएंगे अरमान..
फिर बटोरते रहना जिंदगी भर..!!
गुरुवार, 10 जनवरी 2013
यह ना होती...!!!
खुद ही भुला रखा अपनी सल्तनत का पता ..
उदासियों की बस्ती से कोई नागरिकता नहीं होती ..!!
चिराग तन्हाइयों का हो या फिर महफिलों का..
चिराग तन्हाइयों का हो या फिर महफिलों का..
उनकी कभी हवाओं से दोस्ती-यारी नहीं होती ..!!
यूँ टपकते छत तले रात ना कटती..
यूँ टपकते छत तले रात ना कटती..
गर तरबीयत इन शानदार हवेलियों में होती ..!!
बातों में हमारी सच्चाई के बोल थोड़े कम हैं
वरना आजकल खबरों में सब खैरियत न होती ..!!
रविवार, 6 जनवरी 2013
पुरानी बस्ती...!!!
मुसाफिर बने घुस गया पुरानी बस्ती में ..
अंश्कों को सैन्हारते पंहुचा मस्ती में ..!!
सुखाने बैठा जब भीगे रुमाल देख ..
यादें ही बैठी अलाव जलाए कस्ती में ..!!
फूँक मारा और जल उठे वादों के पुवरे ..
पर जल गया मैं फिर उन्ही परस्ती में ..!!
गलती थी कुछ तभी झेला हूँ अब तक ..
वरना कौन सजाता पैमाना इतनी सस्ती में ..!!
धो नहीं पा रहा था लिए ताउम्र उन्हें ..
तभी बंच आया ख्वाब उन्ही पुरानी बस्ती में ..!!
सोमवार, 1 अक्टूबर 2012
तडपती मछलियाँ....
उनकी दूरियों से भली तो नजदीकियां थी,
कितने बादलों से लिपटी उनकी बस्तियां थी...!!!
बस चले जा रहे यूँही कही घूमते हुए,
गर्दिशों से बड़ी तो जिल्लतों की कस्तियाँ थी...!!!
एक अजब सी बिजली को झेल रहा था,
यूँ निकलती आइनों से उभरी "आकृतियाँ" थी...!!!
जाने कितने लाशों को लादे चल रहा था मैं,
पहुंचा जब तालाब तलक तो देखा ए दोस्त,
गठरी में मरती तड़पती मछलियाँ थी...!!!
गठरी में मरती तड़पती मछलियाँ थी...!!!
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