बड़ी खामोसी से बैठे हैं फूलो के धरौदे....जरा पूछ बतलाएंगे सारी गुस्ताखिया....!!!______ प्यासे गले में उतर आती....देख कैसे यादों की हिचकियाँ....!!!______ पलके उचका के हम भी सोते हैं ए राहुल....पर ख्वाब हैं की उन पर अटकते ही नहीं....!!!______ आईने में आइना तलाशने चला था मैं देख....कैसे पहुचता मंजिल तो दूसरी कायनात में मिलती....!!! धुप में धुएं की धुधली महक को महसूस करते हुए....जाने कितने काएनात में छान के लौट चूका हूँ मैं....!!!______बर्बादी का जखीरा पाले बैठी हैं मेरी जिंदगी....अब और कितना बर्बाद कर पाएगा तू बता मौला....!!!______ सितारे गर्दिशों में पनपे तो कुछ न होता दोस्त....कभी ये बात जाके अमावास के चाँद से पूछ लो....!!!______"

शुक्रवार, 29 मई 2015

यादों का बागीचा


बगीचे के टिकोरे लद गए है। चल चलते है ना बगीचे मैं अपनी गुलेल निकालूँगा। हाँ मेरी जान सुपर-गुलेल। उसी से तो तुझे इम्प्रेस किया था। फिर निशाना लगाऊँगा खरीद कर लाया हूँ दस कंचे। प्रॉमिस 10 मे से तेरा 8 हिस्सा होगा। मैं फिर पेट दर्द का बहाना बनाकर तुझे पूरा दे दूंगा।

मन होता कभी सिखाऊँ तुझे गुलेल चलाना। जाइसे शोले में धर्मेंदर सिखाता नहीं बसंतीया को, बिलकुल उसी टाइप। यही सब सोच ही रहा था सुनील की एक टिकोरा उसके सर पर आ गिरा और मीठी नींद से जागा दिया। आज दिन काफी बदल गया है। ना अब नानी के यहाँ जाना होता ना ही अब मेरा निशाना उतना पक्का।

सलोनी भी गुम हो गयी इतिहास के सुनहरे पन्नो में। नानी का खपड़ैल कबका बिखर चुका है। बागीचे से लौटकर सलोनी के मुहल्ले की गली को ताकता सुनील काफी देर बैठा रहा। पर सलोनी कहाँ आने वाली वो तो महफ़ूज है आज भी छुटकी सी दो चोटी लाल फीते से बाधे किसी पुरानी यादों के बागीचे में।
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यादों का बागीचा - मिश्रा राहुल
©खामोशियाँ-२०१५ | २९-मई-२०१५

शुक्रवार, 22 मई 2015

मुझमें समा ना



छोड़
ना दलीलें
दुनियादारी की।

तू
अपना हक
जाता ना,

तू
फिर से
मुझमें समा ना।

दो बातें
पुरानी करनी।
दो रातें
साथ जगनी।

कुछ
खिस्से फिर
बतला ना।

तू
फिर से
मुझमें समा ना।

दुनिया
परायी सी
लगती है।

तन्हा
सतायी सी
लगती है।

तू
बातों का
जादू चला ना।

तू
फिर से
मुझमें समा ना।

रोज
खोजता हूँ
वो अक्स तेरा।

कितना
प्यारा सा
खिलखिलाता चेहरा

तू
खुल के
सब बता ना।

तू
फिर से
मुझमें समा ना।

©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल | २२-०५-२०१५

बुधवार, 20 मई 2015

प्रेम का क्रीम बिस्कुट



दो
जुड़वे जोड़े,
बिलकुल
एक ही शक्ल के।


एक दूसरे
के इतने करीब
कि फर्क ही
ना बता पाए कोई।

दोनों
के बीच
जमी रहती
ताउम्र
प्रेम की
मीठी क्रीम।

देखा होगा
आपने कई रोज
ऐसा
प्रेम का क्रीम बिस्कुट।
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©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल

मंगलवार, 19 मई 2015

ज़िंदगी की गाड़ी



प्रेम....लगाव...स्नेह....

तीनों पर्यायवाची है एक दूसरे से लगाव स्नेह उत्पन्न करता जिससे प्रेम बढ़ता जाता। प्रेम ना तो खरीदा जा सकता ना ही जबर्दस्ती किसी से करवाया जा सकता। वो तो स्वमेव हो जाता। अचरज होता कभी-कभी दुनियादारी की दो-धारी व्यवहार को देखकर।

दुनिया चलती ही प्रेम की गाड़ी पर है जिसके चार पहिये होते।
1. पहला भरोसा - भरोसा वो पहिया है किसी गाड़ी जिसका स्टेप्नी नहीं होता क्यूंकी उसका रिप्लेसमेंट नहीं होता।
2. दूसरा उम्मीद - उम्मीद के बिना प्रेम की गाड़ी खिसक ही नहीं सकती। बस ठहर सी जाती है।
3. तीसरा समर्पण - समर्पण होना चाहिए। समर्पण पूरक चक्का है। दोनों बिना असंभव कड़ी।
4. चौथा और अंतिम है स्नेह - स्नेह पर ही पूरी दुनिया टिकी है। स्नेह वो शब्द है जो समेत लेता असंख्य शब्दों व्यवहारों को।


कुछ बातें जादुई होती है। जिसका प्रत्यक्ष रूप से देख पाना असंभव है पर आभासी होने के बावजूद ये बहुत ज्यादा प्रभावित कर जाती। इंसान को।

सोचिएगा जरा।

- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)

गुरुवार, 14 मई 2015

वो आखिरी मुलाक़ात - लघु कथा



"Meet Me at Gol Park...Important बात करनी" Suhani Text Recieved

बड़ी देर तक दोनों में कुछ भी बातें ना हुई। आखिरकार समर्थ नें हंसकर अपनी कोशिश करने के हाथ बालों को सहलाने लाया।

हाथ झटकते हुए सुहानी नें कहा, "थोड़ा हद में रहो। I am not your assets..Got it...Mr. Samarth..."

समर्थ नें बड़ा अचंभित होकर सुहानी को एक टक देखने लगा। फिर अपना हाथ हौले से हटाकर अपने चेहरे को ढाँप लिया। कुछ देर तक सोचा असल में पिछले पाँच साल में ये पहली बार था जो सुहानी नें इतना rudely बात किया था। समर्थ के हाथ जाने कितने यादों की खून से सने, भीगे हुए मालूम पड़ रहे थे। उसको समझ नहीं आ रहा था कल तक तो सब ठीक था आज अचानक इतनी दिक्कत कहाँ से हो गयी।

"और ये इमोश्नल ड्रामा बंद करो। मेरा दिमाग खराब हो जाता। पागलपन अपने पॉकेट में रखा करो।" सुहानी नें गुस्से में कहा

पर समर्थ के आँसू कहाँ रुकने वाले थे। शायद इतना मजबूत लाइफ़स्टाइल का समर्थ खुद के यादों के आगे असमर्थ कैसे हो जाता।

"मैं रो नहीं रहा हूँ बोलो कौन सी बात करनी" समर्थ नें आवाज़ में जोर लगते बोला
"हाँ तो सुनो। तुम्हारे साथ रहकर मेरी ज़िंदगी कैद हो गयी है। हर चीज का हिसाब देना पड़ता। कहाँ जाती हूँ क्या करती हूँ सब कुछ। ये सब से मैं अब पक चुकी हूँ। सो तुम मेरे बगैर जीना शुरू कर दो। ना तुम्हें दिक्कत ना मुझे दिक्कत।" सुहानी से दो टूक सा जवाब उसके मुंह पर दे मारा

"अरे ऐसा कहाँ है। कौन किसकी आजादी छीन रहा। मैं तो तुम्हारा खयाल रखने की वजह से ऐसा कहता रहता हूँ। रूहानी प्लीज इतना rude ना हो हम अच्छा नहीं लग रहा। जो वजह है वो बताओ ना मेरा दिल नहीं मान रहा।" समर्थ नें हबसते हुए कहा

Care My Foot...तुम सब care का हवाला देकर हम लड़कियों की आजादी पर डाँका डालते हो। और इस मुलाक़ात को आखिरी समझना दुबारा मेरे से कांटैक्ट करने की कोशिश भी मत करना। मैं तुम्हारी शक्ल नहीं देखना चाहती।

I Hate You ... I Hate You .... I Hate You

सुहानी...सुहानी...एक बात मेरी भी सुन लो ... चिल्लाता हुआ समर्थ उसके पीछे भागा पर सुहानी नें अपना बैग उठाया और बिना पीछे एक बार भी मुड़े सीधा चलती गयी। उसके कदम तेज और तेज चलते जा रहे थे। मानो वो किसी दायरे से बाहर भागने की कोशिश में हो।

समर्थ बैठ गया। उसको कुछ बातें समझ नहीं आ रही थी। उसको सारी बातें एक साथ रील दर रील घूमने लगी। शायद ये वही पार्क था जहां से उसकी नई ज़िंदगी नें करवट ली थी। उसको जीना पहाड़ लगने लगा था। अचानक से सुहानी का व्यवहार उसको पच ही नहीं रहा था। क्यूंकी पाँच साल इतना कम समय न होता की कोई एक दूसरे को जान-पहचान ना पाए। फिर भी जो हो रहा था उसपर वो विश्वास कैसे ना करे। अजीब सा असमंजस में समर्थ कभी अपना हाथ दीवाल पर मार रहा था तो कभी पाँव जमीन पर पटक रहा था।

दुश्मनों से तो लड़ा जा सकता पर यादों से लड़ना आसान काम कहाँ।

पर ये mystery कहाँ ज्यादा देर टिकने वाली थी। समर्थ थोड़ा शांत हुआ तो देखा एक रंग-बिरंगा कार्ड उसके बगल में गिरा हुआ था।

सुहानी त्रिवेदी वेड्स अभिलेख शुक्ला। बस बाकी माजरा समर्थ के आगे आईने के समान साफ था। सुहानी का बदलाव इसीलिए था कि वो मेरे दिल में नफरत भर सके। वो धीरे धीरे पार्क से निकलने लगा। तो देखा सुहानी वही बैठी रोए जा रही है।

सुहानी नें समर्थ को नहीं देखा। समर्थ नें जल्दी से कार्ड अपने शर्ट में डाल दिया।

सुहानी....एक बार सुनो तो मेरी बात सुन लो....समर्थ नें फिर आवाज़ लगाई।

समर्थ की आवाज़ सुनकर सुहानी अपने आँसू पोछते हुए झट से पीछे घूमी और बोली...."गधे... नालायक...तुम्हारे भेजे में कोई बात आसानी से आती है की नहीं। मैं तुमसे प्यार नहीं करती। नहीं करती नहीं करती।"

"तो किससे करती हो प्यार अभिलेख शुक्ला से", समर्थ नें कार्ड दिखाते हुए बोला।

अब सुहानी को रोकना नामुमकिन था। उसके आँसू अब समर्थ के आगे ही बिखर पड़े। सुहानी लिपट गयी समर्थ से। बस दोनों के आँसू नें ही जाने कितने सवालों के जवाब खुद ब खुद दे दिये।

I will love you forever....जहां से कहानी शुरू हुई थी आज शायद वही पर आकर थम गयी....थम जाना कहना थोड़ा गलत होगा।

प्यार थमता नहीं। रुकता नहीं चलता जाता है। बस वो मुलाकात जरूर आखिरी थी।
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वो आखिरी मुलाक़ात - लघु कथा
©खामोशियाँ - २०१५ | मिश्रा राहुल

रविवार, 10 मई 2015

तस्वीरें


यादें रूह को अंदर से इतना खोखला बना देती,
खुद ही तस्वीरों से निकलकर रास्ता बना देती।

इंसान गायब हो जाता इस अचानक दामन से,
कीमती होकर जिंदगी इतना सस्ता बना देती।

एहसास इतना पलता रहता उन पुराने खतों में,
जवाब कितने रोज लिखकर वास्ता बना देती।

चुपके से माफी मांग रहे खुले गुलाबी लिफाफे,
हल्की सी होकर भी यादों का बस्ता बना देती।
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©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल | १०-मई-२०१५

Tu Yaad Aayi Happy Mother's Day - A Film By The Maestro Productions


Mother's Day ithink it should not be confined to a single day. This is magical nudge which everybody should feel round the clock...

You very well know what your MOM wants from you...As Person changed the Behavior changes But the MOM is Universal She can't change her demands are same...!! 

गुरुवार, 7 मई 2015

याद


बनके याद तुझसे अपने ख्वाबों में मिलता रहूँ,
चाँद को बनाकर आईना मैं हर रोज सजता रहूँ।

अजीब सुकून दे जाती तेरी तबस्सुम संदली सी,
लेकर तेरी ये मोहोब्बत मैं हर रोज़ महकता रहूँ।

लकीरें उलझी सी है उसका ज़िक्र तक ना करना,
कब तलक नजूमी से मैं हर रोज झगड़ता रहूँ ।

- मिश्रा राहुल

शनिवार, 2 मई 2015

हौसला



जलती राखों पर खाली पाँव ही चलते है,
कोयले के खदानों में सूरमा ही पलते है।

हौसलों की चिंगारी जलाई ऐसी उम्मीद,
हाथो में लेकर सूरज आँखों में मलते है।

चाँद पूरा हो या आधा फर्क नहीं पड़ता,
अकेली शब में जुगनू जेबों मे रखते हैं।

दिखाओ तो दो बस कहाँ है मजिल मेरी,
पाने की ख्वाइशें तो जन्नत की करते है।
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हौसला | खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल

शुक्रवार, 1 मई 2015

गुंजन


गुंजन करती है हर साँझ ख्यालों की ओट में,
तैरता हूँ मैं भी डूबकर छोटे यादों की बोट में।

चुनचुन कर कीमती लम्हे पुराने लिफाफे से,
छापता जाता हूँ हर रोज कागज की नोट में।

©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल