बड़ी खामोसी से बैठे हैं फूलो के धरौदे....जरा पूछ बतलाएंगे सारी गुस्ताखिया....!!!______ प्यासे गले में उतर आती....देख कैसे यादों की हिचकियाँ....!!!______ पलके उचका के हम भी सोते हैं ए राहुल....पर ख्वाब हैं की उन पर अटकते ही नहीं....!!!______ आईने में आइना तलाशने चला था मैं देख....कैसे पहुचता मंजिल तो दूसरी कायनात में मिलती....!!! धुप में धुएं की धुधली महक को महसूस करते हुए....जाने कितने काएनात में छान के लौट चूका हूँ मैं....!!!______बर्बादी का जखीरा पाले बैठी हैं मेरी जिंदगी....अब और कितना बर्बाद कर पाएगा तू बता मौला....!!!______ सितारे गर्दिशों में पनपे तो कुछ न होता दोस्त....कभी ये बात जाके अमावास के चाँद से पूछ लो....!!!______"

सोमवार, 30 नवंबर 2015

लप्रेक ८



पूरे कापी के बंडल को उँगलियों से गिन रहा था। कापी नंबर 24 मेरी गणित के हिसाब से 30 मिनट में साइन होगी मेरी कापी। ऊपर से तिवारी सर की क्लास वो तो बिना दंडहरे छोड़ेंगे नहीं। कलाई घुमा के घड़ी देखा तो 14 मिनट छुट्टी होने में थे।

हे भगवान !! आज लेट करा दे उसकी जीप। बड़े शातिरता से उसनें तिवारी मास्टर की नज़र से बचा कर कुछ कापी की जगह अदली-बदली करदी।
जिसकी वजह से उसे तीन बेंत की सजा मिली। ये सजा तो वो चार-पाँच बेंत खाकर भी हजम कर जाता पर अगली सजा नें उसकी जान पर रेज़र मार दिया।
अब उसकी कापी सबसे आखिरी में चेक होगी।


स्कूल से निकलते ही उसनें खट्टा-मीठा बेचने वाले से इशारे सब कुछ पूछ लिया में पूछ लिया। बस क्या था उसनें निकली अपनी हरक्युलेस रेंजर साइकिल और राणा प्रताप की तरह चेतक को दौड़ाने को लगाम खींच लिया।

दूर दूर तक कोई नहीं था। पर अचानक एक कमांडर जीप दिख गयी। ऊपर से आ गयी उसकी फेवरिट शॉर्ट-कट गली। उड़ान भरता हुआ वो जा पहुंचा जीप के आगे। बस निकलती जीप के पीछे से बाय-बाय करके इशारा किया। जवाबी बाय-बाय नें तो उसका दिन बना दिया।

भूल गया तिवारी की बेंत स्कूल की लेट। मिल गयी जन्नत उसको।

- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)

सोमवार, 23 नवंबर 2015

बेतरतीब उलझन



फुर्सत में ठहरो तो कुछ हम भी कहे,
आँखों में उतरो तो कुछ हम भी कहे।

बेतरतीब उलझन फैली हैं इर्द-गिर्द,
आ सुलझें खुद सुलझानें को भी कहे।

फ़लक नें रोक रखे बहुत टूटे सितारे,
ऊपर झांकों तो गिराने को भी कहे।

शाम की जुल्फें कान के पार लगाए,
वादे किए है जो निभाने को भी कहे।

अच्छा है जो थम गया मर्ज तेरा-मेरा,
सुने ज़िंदगी की सुनाने को भी कहे।

©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से)(२३-नवंबर-२०१५)