बड़ी खामोसी से बैठे हैं फूलो के धरौदे....जरा पूछ बतलाएंगे सारी गुस्ताखिया....!!!______ प्यासे गले में उतर आती....देख कैसे यादों की हिचकियाँ....!!!______ पलके उचका के हम भी सोते हैं ए राहुल....पर ख्वाब हैं की उन पर अटकते ही नहीं....!!!______ आईने में आइना तलाशने चला था मैं देख....कैसे पहुचता मंजिल तो दूसरी कायनात में मिलती....!!! धुप में धुएं की धुधली महक को महसूस करते हुए....जाने कितने काएनात में छान के लौट चूका हूँ मैं....!!!______बर्बादी का जखीरा पाले बैठी हैं मेरी जिंदगी....अब और कितना बर्बाद कर पाएगा तू बता मौला....!!!______ सितारे गर्दिशों में पनपे तो कुछ न होता दोस्त....कभी ये बात जाके अमावास के चाँद से पूछ लो....!!!______"
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शुक्रवार, 26 मई 2017

विदाई का प्लास्टिकरण

अच्छा विदाई की समय रोने को लेकर ऐसा क्या बवाल मचाया जा रहा। यहां तक की क्रैश कोर्स तक चलाया जा रहा कि विदाई के समय अगर आपके आंखों से आंसू नही आ रहे तो कैसे प्रबंध किया जाए।

कुछ विक्स, ग्लिसरीन तक के टिप्स दिए जा रहे। यहां तक की तमाम एक्टिंग क्लासेज भी चलाई जा रही। पर मुझे यह नही समझ आ रहा। इमोशन्स को उभरने दें खुद से, वास्तविक ज़िंदगी में भी आखिर बनावटीपन क्यों?

ट्रेडिशन क्या होता है? रिवाज़ क्या होता है? विदाई में रोना रिवाज़ है। नही रोया तो नए जमाने की लड़कियां।

हद है अजीब भी है, पर हो रहा है।

- मिश्रा राहुल | २६-मई-२०१७
( ब्लॉगिस्ट एवं लेखक )

तेजस

तेजस में से हैडफ़ोन चोरी करने वाले, खिड़की के शीशे फोड़ने वाले एक नागरिक का अच्छा कर्तव्य अदा किये है।

ऐसे ही कुछ नवयुवकों को हम अक्सर अर्थव्यवस्था जैसे गंभीर मसलों पर अपना विमर्श देते हुए पाएंगे। बुलेट ट्रेन आये ना आये यहां वो अलग बात है देशभक्ति कैसे लाएंगे जेहन में लोगों के।

तेजस में सफर करने वाले लोगो का स्तर मध्यमवर्गीय से ऊपर ही होगा। क्या यहीं आपका नागरिक कर्तव्य है। क्या जो तेजस ट्रैन में यात्रा कर रहा उसके पास हैडफ़ोन के पैसे नहीं है?

जो हैडफ़ोन और एलसीडी का शीशा तोड़ा गया है वो सरकार ने या प्रधानमंत्री जी ने अपने पास से नही लगाया। वो हमारा ही पैसा है। आज आप अपने घर में ही डाका डाल रहे। कल को अगर आपके बेटे को तेजस जैसे हाई प्रोफाइल ट्रेन में सफर का मौका मिलेगा तो शायद उसे ही हैडफ़ोन ना मिले जो कि आपने चुरा लाया।

खुद बदलिए। देश बदलता दिखाई देखा।

- मिश्रा राहुल

सुपर कमांडो ध्रुव

गर्मी की छुटियाँ शुरू हो चुकी हैं। छुट्टियां बिना कॉमिक्स के हमारे जमाने मे कैसी होती थी। ये कोई नब्बे के दशक के बच्चों से पूछ लें।

किराए पर कॉमिक्स लाकर पढ़ने का मज़ा ही अलग होता था। क्योंकि उस समय जेबों में इतने पैसे नही होते थे की पूरी 30 रुपए की कॉमिक्स खरीदी जा सके। नानी मामा के यहां से चंदा जुटने के बाद भी 3-4 कॉमिक्स में ही ढेर हो जाया करते थे। पड़ोस में रमेश काका की स्टेशनरी की दुकान से कितनी कॉमिक्स किराए पर लाई थी याद भी नही। उसमे कितने हमने झटक के अपने आलमारी में रख ली वो उनको भी याद नही। खैर आजकल सेलफोन पर चमकी स्क्रीन के गेम ने कॉमिक्स की जगह ले ली है फिर भी एक गुजारिश है राज कॉमिक्स से।

अनुपम सिन्हा वापस ले आइये हमारे करैक्टर ध्रुव को। शक्तिशाली, बुद्धिबल से पल भर में दुश्मनों को मटियामेट करने वाला ध्रुव के पास खास ऐसी कोई शक्तियां नहीं थी। पर स्टार बेल्ट, और अपनी सुपर कमांडों वाली छवि से हमारे बचपन का हीरो खुद को बड़े बड़े नामों से आगे पाता था। आसपास की चीजों को हथियार बनाकर ध्रुव किसी भी परिस्थिति में खुद को ढाल ले जाता था।

नागराज, तिरंगा, डोगा, परमाणु जैसे दोस्तोँ के होते हुए भी ध्रुव की छवि बेहद ही शानादार ढंग से प्रस्तुत किया था अनुपम सिन्हा जी।

- मिश्रा राहुल | २५ - मई - २०१७
(ब्लॉगिस्ट एवं लेखक)

शुक्रवार, 19 मई 2017

दो शब्द अभिभावकों से।

कुछ दिनों में आपके बेटे/बेटियों के रिजल्ट्स आने वाले होंगे। यदि आपके बच्चो के मार्क्स, पडोसी के बच्चे से कम भी आए तो प्लीज उनको परेशान मत करिएगा।
ज़िन्दगी बहुत बड़ी है और मौके अपार है। वो कुछ भी बन सकता। हाँ सही सुना आपने कुछ भी।
और यह भी सही है उस कुछ भी में कभी उसके बोर्ड परीक्षा में आए अंको का लेना देना नहीं होगा।
जैसे आपकी बिटिया अच्छी आर्टिस्ट बन सकती, जिसके लिए उसके गणित के नंबर अच्छे पाने की आवश्यकता नहीं। क्या आप जानते है मशहूर चित्रकार मक़बूल फ़िदा हुसैन इंटरमीडिएट बोर्ड के गणित में कितने अंक हासिल किये थे।
ठीक उसी तरह आपका बेटे क्रिकेटर बन सकता जहां उसके इतिहास के अंकों का ख़ास महत्त्व नहीं होगा।
ज़रा अपने और सोसाइटी के बंधनो से खुद को मुक्त करके सोचिये। परंपरा को तोड़िये। खोजिए वो खूबी जो ईश्वर नें आपके बेटे में जन्म से दे रखी है।
सोचियेगा | समझियेगा
- मिश्रा राहुल
(ब्लॉगिस्ट व लेखक)

मंगलवार, 19 मई 2015

ज़िंदगी की गाड़ी



प्रेम....लगाव...स्नेह....

तीनों पर्यायवाची है एक दूसरे से लगाव स्नेह उत्पन्न करता जिससे प्रेम बढ़ता जाता। प्रेम ना तो खरीदा जा सकता ना ही जबर्दस्ती किसी से करवाया जा सकता। वो तो स्वमेव हो जाता। अचरज होता कभी-कभी दुनियादारी की दो-धारी व्यवहार को देखकर।

दुनिया चलती ही प्रेम की गाड़ी पर है जिसके चार पहिये होते।
1. पहला भरोसा - भरोसा वो पहिया है किसी गाड़ी जिसका स्टेप्नी नहीं होता क्यूंकी उसका रिप्लेसमेंट नहीं होता।
2. दूसरा उम्मीद - उम्मीद के बिना प्रेम की गाड़ी खिसक ही नहीं सकती। बस ठहर सी जाती है।
3. तीसरा समर्पण - समर्पण होना चाहिए। समर्पण पूरक चक्का है। दोनों बिना असंभव कड़ी।
4. चौथा और अंतिम है स्नेह - स्नेह पर ही पूरी दुनिया टिकी है। स्नेह वो शब्द है जो समेत लेता असंख्य शब्दों व्यवहारों को।


कुछ बातें जादुई होती है। जिसका प्रत्यक्ष रूप से देख पाना असंभव है पर आभासी होने के बावजूद ये बहुत ज्यादा प्रभावित कर जाती। इंसान को।

सोचिएगा जरा।

- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)

गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

प्रेम की आधुनिकता


राजीव - सुरुचि | गिन्नी-कबीर | रोहन-जोया | विकास-नेहा । शुभम-आकांक्षा । सुमित-शिखा जैसे सैकड़ों आज भी जिंदा है, हर गली में हर मुहल्लों में बस नाम बदल-बदलकर। आँखों के इशारे से दिल के दरवाजे की दस्तक तक प्रेम होता है। दिन के चैन से लेकर रातों में ख्वाबों तक प्यार का पहरा होता है। बस दो मिनट की मुलाक़ात खातिर सैकड़ों मील चलकर जाना ही प्यार की परिभाषा होती। मुश्किल हो या खुशी सबसे पहले किसी को याद करना ही प्यार की आदतें होती।
प्रेम का अस्तित्व अगर समय रहते पता चल जाए तो बात ही क्या हो। अगर वक़्त करीब रखता तो कद्र ना होती और दूरी बढ़ जाती तो वापस पाना उतना आसान नहीं होता।
खैर प्रेम जरूरी है। लगाव जरूरी है। चाँद-सितारे तोड़ना एक मायना है की हम किस कदर तक आपके एक आवाज़ पर कुछ भी ला सकते।
प्यार ऐसा बंधन है जो अचानक से होता है। अचानक से कोई इतने करीब होता की बिना उसके जीना दुश्वार हो जाता। एक मिनट के लिए भी ओझल ना होने का मन होता।
फिर भी दुनिया चका-चौंध में आजकल रिश्तों की टूटने का खबर सुनता हूँ तो बड़ा दुख होता है। दर्द होता है की कहीं लोगों का प्यार-मोहोब्बत से विश्वास ना उठ जाए। कहीं कोई किसी पर एतबार करना ना छोड़ दे। कुछ बातें ईश्वरी है वो कायम रखना जरूरी।
_________________
प्रेम की आधुनिकता | मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)

शुक्रवार, 27 मार्च 2015

प्रेम कस्तूरी


प्रेम...लगाव...उम्मीद...एहसास।
प्रेम धुरी है। जिसके इर्दगिर्द जीवन पर्यन्त लगाव व उम्मीद घूमघूमकर सुकून का एहसास कराती।
लगाव और उम्मीद का हावी होने से कभी कभी दोनों प्रेम धुरी से पृथक होकर बाह्य बल के सामावेश में आ जाते।
यही से विकार शुरु हो जाता। एहसास का दर्पण धुधलाने सा लगता। रिश्ते भी मृग मरीचिका तलाशते घूमते पर कस्तूरी तो स्वयं उसी लगाव-उम्मीद में है। जरूरत है बस एक तराजू की जो दोनो के विस्थापन को सुनियोजित करता रहे।
__________________
प्रेम कस्तूरी | मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नों से)(२५-मार्च-२०१५)

मंगलवार, 7 अक्टूबर 2014

Ehsaas : Kuch Toh Rehta Hai

Happy Teachers Day : A Film by Maestro Productions



टूटी पेंसिल....पुराने शार्पनर....कलर पेंसिल....चार लाइनर कॉपी....!!
नन्हें हाथो में अनगिनत सपने.....उनको पूरा करने के लिए तैयार एक शख्स पूरी तल्लीनता के साथ...!!!
जब पेंसिल पकड़ अक्षर लिखाते...उनके हाथ में वो नन्हें हाथ समा जाते...दिल में एक विश्वास रहता...गलत रास्तों पर कदम ना भटकने देंगे....

रोक लेंगे....
मार कर... पीट कर...दुलार कर...!!!
चाहे जैसे भी बस....उनके आँखों के सपनों को पहचानते...उन्हे ज़िंदगी के अनुभव बांटते....!!

उन्ही अनुभवों के बीज ऊपर आकार लेने लगते... और एक दिन उस पर मीठे फल लगते....पर तब तक वो शक्स शायद उनके फल चखने के लिए पास ना होता...!!!

____________
हॅप्पी टीचर डे....

- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)

सोमवार, 8 सितंबर 2014

प्रेम-पत्र बनाम मैसेज


प्रेम का महत्व दिन बदिन कम होने से मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया आखिर इस बात के पीछे सच्चाई क्या है। दिमाग पर काफी ज़ोर डालने पर मालूम चला की पूरा माजरा आज की बदलती तकनीक का है।

प्रेम-पत्र की जगह मैसेज ने ले ली है। जिसमे ना प्रेम होता ना पत्र। हाथ की लेखनी से लेकर पत्र की खुशबू तक सारे गवाही देते उनके साथ होने की। वक़्त लगता तो लग जाए एक हफ्ते दो हफ्ते में जवाब आते। उसी रंगबिरंगे लिफाफे में। रोज़-रोज़ अपने पत्र की इंतज़ार में डाकिया चाचा की सलामती पूछी जाती। वो भी मुस्कुरा के बस इतना कह देते बहू का खत अभी आया नहीं लल्ला।

ये हफ्ते-हफ्ते की बेचैनी, और कुछ सोचने का समय ही कहाँ देती। बस सोचते रहते उनकी सुंदर सुंदर लेखनी में लिपटे उनके भोले भोले जवाब। गुलाबी रंग के लिफाफे गुलाब जैसे महकते उनके बालो की तरह। एक एक हफ्ते पर हाल-चाल जानना आज के समय के हिसाब से तो बड़ा दुर्लभ चित्रण करता। पर उसमे भी अपना मज़ा था।

मोची/दर्जी/माली हर किसी को ख्याल रहता। सब अपनी अपनी तरफ से मदद की हाथ बढ़ाने को तैयार रहते। और हो भी क्यूँ ना प्रेम तो पूजा है। कभी दर्जी काका उनके सूट की चर्चा करते तो मोची चचा उनके सैंड़िल। माली दादा तो अपने गुलाब लिए आते पर शाम को उनको झरता देख रोने से लग जाते।

बरस बीत जाते मुलाक़ात किए/देखे उन्हे जमाने हो जाते। एक झलक खातिर मीलों दूर पैदल चलकर आते और पता चलता आज वो नानी के घर गयी है। पैरो के छाले मुंह चिढ़ाते और दिल उनपर फिर अपने प्यार को पाने के चाहत की लेप लगा भर देता।

लेकिन आजकल के परिवेश में तो फेसबुक/व्हाट्सएप/गूगल प्लस इस बेचैनी को बढ़ने कहाँ देते। सारी बातें तुरंत साफ करने से सोचने के समय में अभाव हो जाता और इस वजह से लोग अनर्गल कर जाते।

- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)

शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

हॅप्पी टीचर डे....


टूटी पेंसिल....पुराने शार्पनर....कलर पेंसिल....चार लाइनर कॉपी....!!

नन्हें हाथो में अनगिनत सपने.....उनको पूरा करने के लिए तैयार एक शख्स पूरी तल्लीनता के साथ...!!!
जब पेंसिल पकड़ अक्षर लिखाते...उनके हाथ में वो नन्हें हाथ समा जाते...दिल में एक विश्वास रहता...गलत रास्तों पर कदम ना भटकने देंगे....

रोक लेंगे....
मार कर... पीट कर...दुलार कर...!!!
चाहे जैसे भी बस....उनके आँखों के सपनों को पहचानते...उन्हे ज़िंदगी के अनुभव बांटते....!!

उन्ही अनुभवों के बीज ऊपर आकार लेने लगते... और एक दिन उस पर मीठे फल लगते....पर तब तक वो शक्स शायद उनके फल चखने के लिए पास ना होता...!!!

____________
हॅप्पी टीचर डे....

- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)

शनिवार, 30 अगस्त 2014

इंसानियत


अस्तित्व....वजूद....
टूट रहा धीरे धीरे...मिट रहा मानव जाती पर से भरोसा। इंसानियत का गला घोंटा जा रहा। खतरे के निशान पार कर रही बुराई। हावी है महत्वाकांछा...हावी है खुद की व्यक्तिगत लोभी भावना। सरेयाम चौराहे पर नीलाम की जा रही बरसों की सजाई सादगी।

अपना...पराया....दोस्त...दुश्मन....
सब एक जैसे दोस्ती करूँ तो दुश्मनी को जन्म दूँ....दुश्मनी करूँ तो इंसानियत का खून होगा....अपना कहूँ तो हक़ कितना दूँ....पराया कहूँ तो दलील क्या दूँ...!!

विश्वास....डगमगाया है.....
उम्मीद है दुबारा पुराने तरीके से लौट सकूँ...बार बार के टूटने पर गांठ पर जाती...और वो गांठ खुलने लगती है समय समय पर...!!!
रिश्तों में गांठ की जगह ही नहीं पर लोगों का क्या वो अपनी बातें कह कर निकाल जाते पर मेरे दिमाग पर गहरा असर करता ये सब...!!!

- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)

एहसास


शिकायत...दुलार...प्रेम...डांट....!!

दूर से ही इतने सारे इमोशन की स्माइली बनाए बिना ही चेहरे पर कई सारे भाव उतर आए।
कान और कंधे के बीच में मोबाइल फोन आजकल किसी सैंडविच से कम नहीं लगता।

चाय की गिलास एक हाथ में कसकर पकड़े। दूसरे में सुनहरे रंग की जीरा युक्त बिसकुट लिए। साथ में कुछ मीठी मीठी गपशप। हल्की हल्की चुस्की के साथ हल्की हल्की वार्तालाप। चेहरे की चमक से हर कोई अंदर की बात की गहराई का अंदाजा आसानी लगा जाए।

ना समय का ख्याल....ना जगह का बवाल...खो जाए ऐसे की गुम हो जाए रास्ते। फिर पूछ कर आना पड़े उन्ही रास्तों को। अगल - बगल की चिल्ल-पों सुनाई ना दें हल्की आहट से जुबान की अगली बोल परख ले। दर्द में महसूस करे खुशी मैं झूम जाए। कुछ तो रहता है शायद कुछ तो रहता है।

- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)

एहसास की गट्ठर


शाम ढलने को है। नीले-नारंगी ग्रेडियंट में रिश्तों की उधेड़-बुन चल रही है। सारे मंजर से साक्षी है सूरज-चाँद। ना सूरज अलसा रहा ना चाँद शर्मा रहा। दोनों एक साथ निगरानी कर रहे पूरे माहौल की शांत-चित होकर।

फिज़ाएँ बार बार ज़ुल्फों को कानो के दायरे से बाहर कर दे रही मानो चाहती हों सहलाना। कदम बराबर बढ़ रहे। गलियाँ खुशमिजाज़ रास्ता दिखा रही। कोई कुछ नहीं बोल रहा। हवाएँ फुसफुसा रही कानों में।

रास्तों के दस्तावेज़ मील के पत्थर बनाते जा रहे। कभी फिर गुजरे जो इधर से तो पहचान कर सके। इतने सारे एहसास की गट्ठर लादे यादें पल रही जेहन में।

- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)

शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

बचपना:


बचपना हमेशा ही अच्छा होता। इंसान को समझ ही नहीं आनी चाहिए। वो आजीवन बच्चा बन कर काट दे। समझ लोभ को जन्म देती। लोभ मति भ्रस्ट कर देता। मति भ्रस्ट इंसान जानवर होता।
इंसान तो वो है जो सभ्य हो, आशावादी हो, कर्मनिष्ठ हो। किसी को आहत ना करे किसी भी तरीके से। आखिर भारत इसी वजह से तो विश्व में प्रसिद्ध है।
अगर आपको देश के लिए कुछ करना है तो प्रोफ़ाइल पिक्चर झण्डा लगाने से नहीं होगा। एक छोटी सी पहल करिए। संस्कृति बचाइए जो इस देश की धरोहर है। जो इस देश को वैश्विक पटल पर जिंदा रखे है।
और यह काम आप महज़ कुछ बातों का ध्यान रखकर मुफ्त में कर सकते। जरूरी नहीं हम देश सेवा बस पैसे/आधारभूत संरचना से ही करे। देश की विरासत बचाने में किया गया काम भी देश हित ही है।

क्या करना:
- आप अनिष्ट ना सोचे किसी की कभी भी
सर्वे भवन्तु सुखिनः
सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु
मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत् ।।
(सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें, और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े ।)
- आप जो कदम उठाने जा रहे उससे क्या किसी आत्मा को कष्ट होगा। आप उन जगह खुद रखकर फैसला करे।
- मीठी बोली/सुंदर विचार/आदर्श नियम के मेल को आप बेहतर तरीके से ढाले।
- किसी की तारीफ करने से हिचके नहीं उसमे आप का कोई पैसा खर्च नहीं होता।

सभ्यता ज़रूरी है देश के वजूद के लिए। सभ्यता अगर खंडित हो गयी तो ना हिंदुस्तान रहेगा ना हम।
तो क्या आप तैयार है खुद को कसौटी पर परखने को।

- मिश्रा राहुल
(लेखक एवं ब्लोगिस्ट)

फोटो सौजन्य: विशाल बाबू (मेला छोटा सा बाबू)

मंगलवार, 29 जुलाई 2014

Rule Book - An Overload


सख्त नियम/जटिल कायदे/उलझा इंसान।
कायदे कानून में बंधा चेहरा। किताबी बातों से लदा इंसान।

हमने थोपे है अपने कायदे दूसरों पर। कुछ ऐसे बंधन जिसकी कभी जरूरत नहीं थी। जिंदगी को गुरुकुल जैसे जिया है हमने। कुछ किताबी आदर्श/कुछ व्यवहारिक परम्पराओं को ढोते आए हैं। ऐसा नहीं है सब अनर्गल था, पर इसकी वजह से मेरी जो छवि है वो कड़क शासक के रूप में बन गयी हैं। या कभी-कभी तो लोग घमंडी तक की संज्ञा दे जाते।

हाँ। हमने अपनी रूल बुक के हर पन्ने को साकार करने की कोशिश की हैं। कामयाब हुआ हूँ की नहीं ये तो शर्वशक्तिमान महाकाल ही बता पाएंगे।

अब इस छवि को बदलने का समय आ गया।
हाँ हे ईश्वर !! मुखौटे नहीं लगाए है हमने कभी भी। वही किया जो वक़्त की अदायगी थी। लेकिन अब और इस किताब को ढोना मुमकिन नहीं। काफी भारी हो चुकी है ये पन्ने जुडते गए हैं इसमे। मायने/एहसास/विचार/कायदे सब एक दूसरे से लड़ रहे। किन्ही दो मजहब के इंसान के जैसे।

Rule Book - An Overload
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(३०-जुलाई-२०१४)(डायरी के पन्नो पे)

बुधवार, 30 अप्रैल 2014

कृतिम खूबसूरती



लपकती झपकती आँखें, उँगलियों से जुल्फे सुलझाती। ट्रेन की खिड़की लगे सीट पर बैठी बाला। लड़ रही अपनी लटों से, जो बार बार किसी जिद्दी बच्चे की तरह कानों की चाहदीवारी फांग बाहर निकल जा रहे।

सूरज किसी लफंगे मजनू की तरह खिड़की बदल-बदल के झाँका करता। जब जब वो सहेज कर हटती, तुरंत की किसी रेत की महल जैसे ढहा देता तेज़ी से आता झोंका। डूबते सूरज की लाल सतरंगी किरने आकर उसके बालो के रंगों को और उकेर देती। अभी ये सब कितना सुंदर चल रहा था कि अचानक से रात आ गयी। खिड़कियों पर शीशे के चद्दर ओढ़ा दिये गए, सटर गिर गए। 

अंदर की कृतिम रोशनी मे वो पहले जैसी कहाँ दिख रही थी। ट्रेन के पंखे भी उसके बालों को नहीं छेड़ रहे थे। मानो कोई घर का गार्जियन आ गया हो, और उसका बाहर घूमना फिरना बंद कर दिया हो। 

कुछ बातें जो प्रकृति ने बना के दी है उसमे इंसान आखिर किस हद तक फेर-बदल कर चुका है। बस इसी हरकत से वो भी हैरान परेशान है। आखिर हम होते कौन है इन सब पर बंदिश लगाने वाले। 

- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)

सोमवार, 28 अप्रैल 2014

टुन-टूना


बंदर के हाथ उस्तरा सुने थे, अब इंसानी हाथ मे टुन-टूना सुन लीजिये....कुछ दृश्य शेयर कर रहे। आजकल ये वाकये साथ हो रहे तो सोचा सचेत तो करू या जान तो लूँ और भी किसी के साथ ऐसा हो रहा।

दृश्य 1:
ट्रेन की लाइट बंद हो चुकी है। यात्री सोने की तैयारी मे है। अचानक देखते ही देखते रेल का पूरा का पूरा डिब्बा रंगबिरंगी जगमगाती रोशनी से नहा गया। मानो चलता फिरता मल्टीप्लेक्स बन चुका हो। ढ्रेन-ढ़ीशुम, धूम-धड़ाम तरह तरह की आवाज़ें आणि शुरू। लग रहा कोई फिल्म चली रही। इत्तिफाक़ ये भी होता की आप वो फिल्म देख चुके है। अब आपका मस्तिस्क पूरी छवि तैयार कर रहा। देख आप रहे नहीं पर सुन रहे और स्क्रीनप्ले आपके आगे चल रहा। अब आप स्लीपर हो या एसी नींद आने से रही, माना करेंगे तो झगड़ा/मार-पीट गाली-गलौज।

दृश्य 2:
बस पूरी खचा-खच भरी है। हिलना-डुलना तो दूर ठीक से खड़े रहना तक दुर्लभ। दफ्तर से बॉस का फोन आए जा रहा, जाने कौन सी बात करनी। दो बार फोन उठाने की जहमत की पर नतीजा कुछ सुनाई नहीं पड़ा, तो फोन काटनी पड़ी। पता नहीं कौन सज्जन के 5.1 चैनल के बूफर मे "रात को होगा हंगामा" चीख रहा। दूसरे कोने से किसी और गाने की आवाज़ सुनाई दे रही। तीसरा और दिग्गज वो अपने क्षेत्रीय भाषा के गाने भी उसी अंदाज़ मे सुने जा रहा। आपका भले ही उस गाने से लेना देना नहीं जानना-समझना नहीं पर भाईसाहब, ये तो सार्वजनिक सवारी है। झेलना तो पड़ेगा ही और अब बॉस से डांट भी फिक्स मानिए। फोन जो काटा आपने उनका इगो हर्ट किया।

दृश्य 3:
हॉस्पिटल आए है। आपका दोस्त पलंग पर लेटा दर्द से कराह रहा। उसे ऑपरेशन थिएटर मे लिए जाने के लिए बस चंद मिनट बचे हैं। बेचारा कुछ दर्द/कुछ उत्तेजना/कुछ डर के कारण सहमा जा रहा। अस्पताल के गलियारे मे फैली नीरवता है, होना भी चाहिए। तभी एक जगह जगह से फटी जीन्स से एक दुबले पतले लड़के ने अपनी ईट के आकार की चमकती मोबाइल निकाली और लग गया निंजा सोल्जर मे। ये निंजा सोल्जर की पिंग-पुंग पूरे हॉस्पिटल के माहौल को बर्बाद कर रही। वो आवाज़ इतनी असहनीय है की मेरा दोस्त बार बार उठ बैठ जा रहा।

दृश्य 4:
मैं काफी देर से "होटल क्लार्क अवध" मे अंकिता का इंतज़ार कर रहा। घड़ी की सुई थम सी गयी है मानो आधे घंटे का समय बीत ही नहीं रहा। चलो किसी तरह मैंने उसे काट लिया। अंकिता आ गयी। अब मैं उससे मेनू ऑर्डर के लिए दे रहा तो वो अपने सेलफोन मे इतनी बीजी है कि जैसे मुझसे बस मिलने आई हो और दिमाग अपने फोन मे लगाकर रख लिया हो। खैर हमने ऑर्डर तो कर दिया अब भी वो खाये जा रही और मुझसे एक शब्द बात नहीं की। मेरा खाना खत्म हो गया और उसने शुरू तक नहीं किया। फिर अचानक से उठी फिर कह रही "सोर्री राहुल आज खाने का मूड नहीं"। मन किया खींच कर दो थप्पड़ लगाऊँ उसे। फिर भी मैंने मज़ाक के लहजे मे पूछा कौन है फोन पर। सर हिलाते वो चली गयी।

क्या मोबाइल का आविस्कार इसलिए किया गया था।

मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)

रविवार, 13 अप्रैल 2014

पृथ्वी गोल घूमती


एक बहुत बड़ी मूंछ वाले दादाजी....एक छोटी कद-काठी के अनुभवी चाचाजी....कुछ दौड़ते भागते नवयुवक....


सुबह-सुबह की बेला का ये मनोहर दृश्य देख मन भर जाता। हर दिन जैसे 24 घंटो बाद हम फिर निकल जाते। उन्ही कुछ अंजान चेहरो से मिलने, जिनसे मिलने का कभी हमने वादा नहीं किया फिरभी बड़ी बेसबरी से नजरें खोजती उन्हे। मानो हर 24 घंटो बाद पृथ्वी घूम के फिर वापस आ जाती। 


सबके चेहरे पर एक अजीब सी रौनक रहती। यही काम तो है जो हर कोई करता बिना भेद-भाव बिना रोक-टोक। चाहे वो अरब पति हो या सड़क का कूड़ा उठाने वाला। सुबह का उगता लाल सूरज घूस नहीं लेता, ना रात की ओट मे छुपा चाँद कभी अपना हिस्सा मांगता। वो तो दोनों को बराबर ही रोशनी/शीतलता देता।
पर आज वो बड़ी बहुत बड़ी मूंछ वाले दादाजी दिखे नहीं। शायद कोई उन्हे वृद्धाश्रम छोड़ आया होगा। ना ही चाचाजी ने अपने अनुभव बाटें आज। उन्हे भी कोई भतीजा जायदात की लालच मे खा गया होगा।

आखिर इन्ही 24 घंटो के बीच ही तो उन सड़को पर लगने लगती सपने सजाने की बोली और वही बोली सुबह के मसालेदार चाय के साथ हाथो मे लिए अखबार के किसी कोने से उठाकर हम पढ़ते। शायाद उसमे मूंछ वाले दादाजी.की फोटो ना हो पर होगा कोई उन जैसा ही। जिन्हे लिए हम केवल 20 सेकंड ही अफसोस जताते।
अब "न्यूटन चाचा" की भौतिकी समझ आई। हाँ पृथ्वी गोल ही घूमती, सारे के सारे चक्कर मे वही सब दिखते जो की किसी मेले झूले पे बैठे एक छोटे बच्चे को दिखते। जो पूरी भींड़ मे बस और बस अपनी माँ को निहारता रहता और खो जाने पर कस-कस के चिल्लाने लग जाता। आदमी भी तो बच्चा ही है पर वो अब रोता नहीं एहसासों के लिए ड्रॉपबॉक्स बनाया है उसने पर कभी उसे उड़ेलता नहीं।
- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)