भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
रविवार, 13 अप्रैल 2014
पृथ्वी गोल घूमती
एक बहुत बड़ी मूंछ वाले दादाजी....एक छोटी कद-काठी के अनुभवी चाचाजी....कुछ दौड़ते भागते नवयुवक....
सुबह-सुबह की बेला का ये मनोहर दृश्य देख मन भर जाता। हर दिन जैसे 24 घंटो बाद हम फिर निकल जाते। उन्ही कुछ अंजान चेहरो से मिलने, जिनसे मिलने का कभी हमने वादा नहीं किया फिरभी बड़ी बेसबरी से नजरें खोजती उन्हे। मानो हर 24 घंटो बाद पृथ्वी घूम के फिर वापस आ जाती।
सबके चेहरे पर एक अजीब सी रौनक रहती। यही काम तो है जो हर कोई करता बिना भेद-भाव बिना रोक-टोक। चाहे वो अरब पति हो या सड़क का कूड़ा उठाने वाला। सुबह का उगता लाल सूरज घूस नहीं लेता, ना रात की ओट मे छुपा चाँद कभी अपना हिस्सा मांगता। वो तो दोनों को बराबर ही रोशनी/शीतलता देता।
पर आज वो बड़ी बहुत बड़ी मूंछ वाले दादाजी दिखे नहीं। शायद कोई उन्हे वृद्धाश्रम छोड़ आया होगा। ना ही चाचाजी ने अपने अनुभव बाटें आज। उन्हे भी कोई भतीजा जायदात की लालच मे खा गया होगा।
आखिर इन्ही 24 घंटो के बीच ही तो उन सड़को पर लगने लगती सपने सजाने की बोली और वही बोली सुबह के मसालेदार चाय के साथ हाथो मे लिए अखबार के किसी कोने से उठाकर हम पढ़ते। शायाद उसमे मूंछ वाले दादाजी.की फोटो ना हो पर होगा कोई उन जैसा ही। जिन्हे लिए हम केवल 20 सेकंड ही अफसोस जताते।
अब "न्यूटन चाचा" की भौतिकी समझ आई। हाँ पृथ्वी गोल ही घूमती, सारे के सारे चक्कर मे वही सब दिखते जो की किसी मेले झूले पे बैठे एक छोटे बच्चे को दिखते। जो पूरी भींड़ मे बस और बस अपनी माँ को निहारता रहता और खो जाने पर कस-कस के चिल्लाने लग जाता। आदमी भी तो बच्चा ही है पर वो अब रोता नहीं एहसासों के लिए ड्रॉपबॉक्स बनाया है उसने पर कभी उसे उड़ेलता नहीं।
- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)
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