बड़ी खामोसी से बैठे हैं फूलो के धरौदे....जरा पूछ बतलाएंगे सारी गुस्ताखिया....!!!______ प्यासे गले में उतर आती....देख कैसे यादों की हिचकियाँ....!!!______ पलके उचका के हम भी सोते हैं ए राहुल....पर ख्वाब हैं की उन पर अटकते ही नहीं....!!!______ आईने में आइना तलाशने चला था मैं देख....कैसे पहुचता मंजिल तो दूसरी कायनात में मिलती....!!! धुप में धुएं की धुधली महक को महसूस करते हुए....जाने कितने काएनात में छान के लौट चूका हूँ मैं....!!!______बर्बादी का जखीरा पाले बैठी हैं मेरी जिंदगी....अब और कितना बर्बाद कर पाएगा तू बता मौला....!!!______ सितारे गर्दिशों में पनपे तो कुछ न होता दोस्त....कभी ये बात जाके अमावास के चाँद से पूछ लो....!!!______"

सोमवार, 14 अप्रैल 2014

रोज़ की व्यथा


एक खचा-खच भागती लो-फ्लोर बस मे, तेज़ी से दौड़ते एक 60-65 के बुजुर्ग घुसे। साँसे अभी थमी नहीं थी कि नज़रें सीट तलाशने के काम मे जुट गयी। सीट कहाँ मिलती बस मे लोग पहले से ही खड़े थे।
बड़ी दूर देखा उन्होने कि ड्राईवर की सीट के पीछे वाली सीट पर एक लड़का बैठा है और उसको बाजू की सीट खाली है। पर शायद "किसी को वो सीट दिख ही नहीं रही थी" दादा ने यही सोचकर बहुत हिम्मत जुटाई और पूरी भींड़ चीरते हुए पहुँच गए।
बेटा "आप अगर अपना बैग हटा लो तो एक बूढ़ा आदमी बैठ जाए" चाचा ने बड़ी आस भरी निगाहों से उसकी तरफ देखकर बोला।
पर लड़का तो हैडफोन लगाए अपनी ही दुनिया मे था। उसे कुछ सुनाई ही नहीं दिया।
अबकी बार चाचा ने उसे झांकझोरते हुए बोला, "अरे बेटा ज़रा आप बैग हटा लो तो ये बूढ़ा भी बैठ जाए"
लड़का झल्ला गया, "देख बुड्ढे इस सीट पर अभी कोई आएगा और तू बूढ़ा है तो घर पे रह क्यूँ बस मे सफर करता है"। चाचा खिसियाते हुए वहाँ से हट गए, बुरा तो लगा था उन्हे पर क्या करे सब कोई उनके बस मे थोड़े है।
तब तक पीछे से आवाज़ आई, "काका आप आओ यहाँ बैठ जाओ मेरी सीट पर ये सहबजादे है उठेंगे नहीं"। काका ने नज़र घुमाई तो देखा, एक दुबला पतला युवक जिसका एक टांग नहीं था बैसाखी के सहारे उठा और खड़ा हुआ। चाचा ने माना किया, बेटा तुम कैसे खड़े....??
इतना कह कर रुक गए जैसे उन्होने आधी जुबान मुंह मे ही गटक ली हो। टेंशन ना लीजिये काका आप हमको कमजोर ना समझिए। आप आराम से बैठिए।
बस इतना सुनते ही चाचा की आंखे भर आई। वो बच्चे से कुछ बोले तो नहीं पर हाँ उनकी आंखे वो सारे आशीर्वाद दे देना चाहती थी उसको जिसके लिए प्रकृति भी गवाही नहीं देती।
- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)

9 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना बुधवार 16 अप्रेल 2014 को लिंक की जाएगी...............
    http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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    1. किसी को आदर देने मे कौन सा पैसा लग जाता सबका।

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  3. उत्तर
    1. पर दिगंबर साहब थोड़ी तबदीली जरूरी है आखिर कब तक ऐसे चलेगा यूं तो हमारी संस्कृति को धब्बा लग जाएगा। जो विश्व विख्यात है।

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  4. मन को कोने को छूती हुई कथा.....आज के परिवेश ,संस्कार पर प्रश्नचिन्ह लगाती हुई।एक ज्वलंत प्रश्न छोड रही है हम आत्मावलोकन करें कि प्रतिदिन अपने नैतिक मूल्यों की अवमानना अवहेलना एवं परित्याग करते हुए हम किस संवेदनहीन युग की ओर अग्रसर हो रहे हैं। सुन्दर रचना हेतु बधाई।

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    1. संवेदन हीनता ही आजकल के युवा की पहचान बन गयी है। वो तो आरक्षित हो गया है खुद के लिए बाकी उसको कुछ दिखता ही नहीं।

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