बड़ी खामोसी से बैठे हैं फूलो के धरौदे....जरा पूछ बतलाएंगे सारी गुस्ताखिया....!!!______ प्यासे गले में उतर आती....देख कैसे यादों की हिचकियाँ....!!!______ पलके उचका के हम भी सोते हैं ए राहुल....पर ख्वाब हैं की उन पर अटकते ही नहीं....!!!______ आईने में आइना तलाशने चला था मैं देख....कैसे पहुचता मंजिल तो दूसरी कायनात में मिलती....!!! धुप में धुएं की धुधली महक को महसूस करते हुए....जाने कितने काएनात में छान के लौट चूका हूँ मैं....!!!______बर्बादी का जखीरा पाले बैठी हैं मेरी जिंदगी....अब और कितना बर्बाद कर पाएगा तू बता मौला....!!!______ सितारे गर्दिशों में पनपे तो कुछ न होता दोस्त....कभी ये बात जाके अमावास के चाँद से पूछ लो....!!!______"
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शुक्रवार, 29 मार्च 2013

खिड़कियाँ या सरहद...!!!


दीवाल पर सजी पोट्रेट...
बगल मँडराते झूमर...!!
एक ही कमरे मे कैद...
कितनी जीवंत वस्तुए...!!

कुर्सियाँ भी बिठाने को...
आतुर रहती अपने पे...!!
शायद हफ्तों मे भी...
कईयों की बारी ना आती...!!

पुरानी अल्मारियों मे
पैर जमाये बूढ़े धरौंदे...!!
चांदी की काटी पर झूलती...
काका की बनाई ऑयल पेंटिंग...!!

दोनों ओर खिड़कियाँ...
बिलकुल आमने सामने..!!
मानो मुह चिढ़ा रही...
देख एक दूसरे को...!!

पर ऐसा नहीं शायद...
क्या गज़ब तालमेल हैं...!!
एक की सवाल पर तुरंत
दुजी उत्तर थमाती...!!

कोई एक से देखता...
चलते फिरते मँडराते लोग...!!
तो दूसरी वीरानियों से...
मुखातिब करवा देती...!!

जैसे कमरा ना हो...
हो सरहद की लकीर...!!
दोनों ओर दो समुदाय...
और दोनों से बराबर प्रेम...!!

कई वर्षो की आहुती दी...
अब लोग कहते हटाओ..!!
तोड़ रहे लोग मेरा घर....
मिट रहा हैं मेरा वजूद...!!

हाँ लकीरें ही तो हैं...
पर अब मिट नहीं सकती...!!
पुरानी हो चुकी हैं...
मिटाने पर और गाढ़ी होंगी...!!

~खामोशियाँ©

शनिवार, 16 मार्च 2013

पुरानी खिड़कियाँ...!!


उचक के झांक रहे...
पुराने यादों के अक्स...!!
पर्दो पे पेंग मारते...
पतझड़ के गमगीन भौरे..!!

कितने अरमान अपने पर
लादे उतार उन्हे ज़रा...!!
कुछ चौड़े लंबे ठहरे...
गर्दन झुकाये घुस रहे...!!

अब बुला रहा तेरी
कोहनी छूने को बर्जा...!!
थोड़ा बेताब हैं वो...
रील घूमा के चलाने को...!!

देखेगा वो भी साथ बैठे...
रोने मत देना उसे...!!
वरना लोग सोचेंगे...
गर्मियों मे अबसार कैसे...!!

~खामोशियाँ©

शनिवार, 9 मार्च 2013

खून के धब्बे ...


एक पुरानी...
जंग ओढ़े आरी...
काट रही सूरज की...
उँगलियों के नासूर..!!

नजरे छटकते ही...
और खिच गयी...!!

अब सरक रहे
लाल पानी को
थामने से क्या होगा...!!

खून के दब्बे...
बराबर मौजूद हैं
सूरज की बुशट पे...!!

साईरन बजने पहले
ही फींच देना उसे...!!

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

कशिश...!!!

सूनी जिदगी बोझल होती....परछाई खोने का भी डर रहता...जाने और कितने डर रहते जेहन में कैद...कितनो को बतलाये...एक आकृति सजाने की कोशिश की हैं पकड़ लिए सूचित करियेगा...उसमे रंगों को भरवाना हैं...सूख गयी हैं उसे मुद्रक की स्याही...हमारे लिए तो अब केवल श्वेत श्याम तस्वीरे ही बनाता वो...कौन भरवाए उसकी "कार्ट्रिज में इंक"....!!!
एक एकांत सी जगह खोज रहा था मैं...
शायद सुनसान सा कब्र खोद रहा था मैं...!!!

कहने को काफी दलीले थी मन में..
चेहरे पर चादर ओढ़कर सो रहा था मैं...!!!

किसी कौतुहल से डरे हुए जीवन के...
ना जाने किसके पुराने बाँट जो रहा था मैं...!!!

किसी प्लेटफोर्म चीरकर धडधडाती रेल जैसे...
कितनो की जीवन में हल्ला बोल रहा था मैं...!!!

एक छत थी टपकती हुयी आशियाने में...
उससे अपनी दामन भीगो रहा था मैं...!!!

धुन भी थी मदमस्त हवाओं की आज...
फिर भी पंख उतार कर सो रहा था मैं...!!!

कितने काफिले आये गए यहाँ कौन बताये...
किसके पैरोंकी खनक को मसोश रहा था मैं...!!!

गुरुवार, 18 अक्टूबर 2012

मेडिकल स्टोर....!!!

मैं खड़ा था एक मेडिकल स्टोर पर कुछ देखा ... !!!
काफी भींड भाड़ सी थी ... कोलाहल रंग बिरंगी... गोलियाँ ... कैप्सूल ... टैबलेट खरीदते लोग ... !!!
उफ़ कितनी सांसत में जीते ... जीवन का मैखाना भी अजब हैं ... साकी तैयार हैं पर पैमाना ही नहीं हैं... !!!
एक पीले पुरानी पर्ची थामे...
कुछ गोंजा गया हैं उसमे ... !!!

अजीब लिखावट थी कोई ...
जैसा दर्द वैसी ही लिखावट भी ... !!!

कोई पढ़ाना चाहे तो भी पढ़ा
ना सके किसी को वो बेरुखी ... !!!

पर एक आदमी कोशिश कर रहां ...
हाँ यह हैं ऊपर के दूसरे बर्जे पर ... !!!

सामने चमकीले पत्ते में लिपटी ...
रख दिया हरी नीले पीले गोलियाँ ... !!!

कुछ भूल आया मैं शायद वहीँ पर ...
हाँ हाँ पर्ची पर अब देर हो चुकी हैं .... !!!

कोई उठा ले गया जैसे पर खैर ...
उसे भी वही दिक्कत होगी लगता हैं ... !!!

सोमवार, 15 अक्टूबर 2012

यादों का बुकमार्क...!!!


अभी एक किताब निकाली थी पढ़ने खातिर दराज से देखा कुछ चिपका हुवा था किताबों के बीच में रंग बिरंगा...धागों से लिपटा...अंग्रेजी में बुकमार्क की संज्ञा दी जाती उसको..!! अब पढूं क्या मैं सोचने लगा काहे लगाते इनको...उसी सोच ने कुछ बना दी लाइने पढ़िए आप भी...!!!

किसी कसी दराज में रखी किताब...
बड़ी अकेली सिमटे पुरानी जिल्द में...!!!

जाने कितने बुकमार्क बाहर निकले...
शायद कई सिलवटें अपने में दबाये...!!!

लाल...नीले...पीले...चिपके एक में..
कौन समझे किसकी खातिर कौन से हैं...!!!

कोई पृष्ठ भी मुड़ा हैं बीच में...
जाने क्यूँ आखिर उसके आगे सफ़ेद क्यूँ हैं...
किरदार सहित काले अक्षर भी लापता...!!!

मंगलवार, 9 अक्टूबर 2012

ओह लकडहारे.....!!

बड़ी बेरहमी से उजाड देते पेडो से भरी बस्तियां...कुछ बूढ़े तो कुछ जवान पेड़ ऐसे काट दिए जाते मानो उनका अस्तित्वा ही नहीं था कभी भी...हाय रे लकडहारे सुन रे लकडहारे...!!!
ओह लकडहारे.....!!
कुछ दूर एक बूढी चट्टान पर .. !!

नजर लगाये बैठे
कुछ लोग ..
एक पुराना पेड़ जैसे दोपहर को खाके .. !!

लेता हैं पाँव पसरे .. अचानक लोग उठा ले गए उसे ..!!

देख कैसे अकेला तड़प रहा उसका अक्ष ..!!

किसीकी आरी और कुल्हाड़ी से निकले लाल पानी ..
से मुह धुल रहा था शाम तलक उठाकर .. !!

ज़रा सा भी वो पहचान ना सका ..

कि यह उसी का लहू हैं जिसमे

डुबकी लगाकर अभी अभी निकला हैं वो .. !!