दीवाल पर सजी पोट्रेट...
बगल मँडराते झूमर...!!
एक ही कमरे मे कैद...
कितनी जीवंत वस्तुए...!!
कुर्सियाँ भी बिठाने को...
आतुर रहती अपने पे...!!
शायद हफ्तों मे भी...
कईयों की बारी ना आती...!!
पुरानी अल्मारियों मे
पैर जमाये बूढ़े धरौंदे...!!
चांदी की काटी पर झूलती...
काका की बनाई ऑयल पेंटिंग...!!
दोनों ओर खिड़कियाँ...
बिलकुल आमने सामने..!!
मानो मुह चिढ़ा रही...
देख एक दूसरे को...!!
पर ऐसा नहीं शायद...
क्या गज़ब तालमेल हैं...!!
एक की सवाल पर तुरंत
दुजी उत्तर थमाती...!!
कोई एक से देखता...
चलते फिरते मँडराते लोग...!!
तो दूसरी वीरानियों से...
मुखातिब करवा देती...!!
जैसे कमरा ना हो...
हो सरहद की लकीर...!!
दोनों ओर दो समुदाय...
और दोनों से बराबर प्रेम...!!
कई वर्षो की आहुती दी...
अब लोग कहते हटाओ..!!
तोड़ रहे लोग मेरा घर....
मिट रहा हैं मेरा वजूद...!!
हाँ लकीरें ही तो हैं...
पर अब मिट नहीं सकती...!!
पुरानी हो चुकी हैं...
मिटाने पर और गाढ़ी होंगी...!!
~खामोशियाँ©
बहुत ही बढ़िया।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन लिखा है आपने।
सादर
नितांत एकाकी और दर्द की बोलती इबारत ,बधाई
जवाब देंहटाएंसंगीता मैम आपका आभार....!!
हटाएंयशवंत सर आपका आभार...!!!
जवाब देंहटाएंबहुत गहन रचना
जवाब देंहटाएंवंदना मैम आपका आभार कि आपने हमारी इतनी लंबी रचना पर अपना समय दिया॥>!!
हटाएंहम्म...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया .....
जवाब देंहटाएंसाभार....
वाह्ह्हह्ह्ह्ह बहुत ही सुन्दर
जवाब देंहटाएंदीदी धन्यवाद...आपका
हटाएंखूबसूरत प्रस्तुति ................लकीरें मिटने को नहीं होती न..
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