बड़ी खामोसी से बैठे हैं फूलो के धरौदे....जरा पूछ बतलाएंगे सारी गुस्ताखिया....!!!______ प्यासे गले में उतर आती....देख कैसे यादों की हिचकियाँ....!!!______ पलके उचका के हम भी सोते हैं ए राहुल....पर ख्वाब हैं की उन पर अटकते ही नहीं....!!!______ आईने में आइना तलाशने चला था मैं देख....कैसे पहुचता मंजिल तो दूसरी कायनात में मिलती....!!! धुप में धुएं की धुधली महक को महसूस करते हुए....जाने कितने काएनात में छान के लौट चूका हूँ मैं....!!!______बर्बादी का जखीरा पाले बैठी हैं मेरी जिंदगी....अब और कितना बर्बाद कर पाएगा तू बता मौला....!!!______ सितारे गर्दिशों में पनपे तो कुछ न होता दोस्त....कभी ये बात जाके अमावास के चाँद से पूछ लो....!!!______"

रविवार, 13 नवंबर 2016

Breeze

Memories laden wind usually prevails when my feet cross the old bridge.

An aromatic bliss hover throughout the region. Something want to nudge my soul.
Do braided tighten with colourful ribbons. A sweet charming smiles scattering few yellowish flavours to sunflower, the envy of her.

Hands Full of Cherished Balloon getting higher with the lovedrogen gas filled up.
Something unnatural occurs when i cross the old bridge.

- Misra Raahul

दोष

पकड़ कर तलवार तू चल कभी ए यार,
जीनीे है तंग गलियां कोई दोष न दे बार।

गर फलसफा होगा यही भंग करना है तुझे,
हाँ मोड़ दे तू अब लकीरें दोष न दे यार।

ज़िन्दगी हैं जब चलेगी चलती ही जाएगी,
खेंच कर दे पतवार कोई दोष न दे यार।

जिल्लतों की पर्ची फाड़ कर दे फेक तू,
सामने बैठा मुक़द्दर है अब दोष न दे यार।

- मिश्रा राहुल (ब्लोगिस्ट एवं लेखक)
(06-अक्टूबर-2016)(डायरी के पन्नो से)

इश्क़ का बुखार

इश्क़
के बुखार
मिलता
कहाँ है इतवार,


कोई
आये लेता जाए
यादों के
थर्मामीटर* की रीडिंग*।

*thermometer
*reading

- राहुल

लप्रेक १९

अंजू नें बालों की क्लिप उतार कर उन्हें हवाओं में तैरने के लिए छोड़ दिया। इधर सुनील की पल्सर हवाओं से बातें कर रही थी वही बातें अंजू की जुल्फें सुलझाते कानों में समां रही थी।

तभी अंजू नें सवाल किया सबसे कीमती चीज क्या है तुम्हारी सुनील बोल पड़ा बातें। इधर अंजू नें ठहाके मार कर कहा, हाँ वो न बंद हो सकती और न पुरानी।

इतने देर में दोनों अपने पसंदीदा रेस्टोरेंट की मनपसंद सीट पर जा बैठे। आर्डर हो गया और शुरू हुआ बातों का सिलसिला वो भी क्यों न हो आखिर पूरे चार साल बाद जो दोनों मिले थे।

दरअसल अंजू बड़ी अड़ियल लड़की थी कॉलेज की और सुनील बड़ा सीधा सा लड़का। दोनों की केमिस्ट्री न कॉलेज को समझ आई, ना उन्ही दोनों को।

अंजू के अंदर लड़कों के गुण थे। देर रात तक डांस बार, घूमना फिरना, बिंदास रहना। वहीँ सुनील बड़ा शांत, गंभीर और मझा हुआ बंदा। कोई मेल नहीं था दोनों में लेकिन साथ थे दोनों। प्यार है ना हो जाता पूछता नहीं।

बातों बातों में दोनों की शाम हो ही जाती। आज भी वही बातें जिनको अगर टेप-रिकॉर्डर चलाके भी सुनो तो हू-ब-हू एक मिलेंगी।

कॉफ़ी हर बार जैसी ठंडी हो गयी। टोस्ट कड़े हो गए। टेबल पर बिल आ गया और सुनील बस एक टक अंजू की आँखों में झांकता रह गया।

"सुनील वेटर बिल लेके आया है कहाँ खोये हो।" अंजू नें पूछा

"ओह हाँ बिल अंजू तुझमे इतना घुल जाता ना और कोई सूझता नहीं मुझे।" सुनील नें कहा

सुनील नें जेब में हाथ डाला। और मिला 500 रुपए का नोट। जिसे देखकर वेटर नें नाक-भंव सिकोड़ लिए। किसी तरह समझ-बुझाकर अंजू नें वेटर को हटाया।

"सुनील आज तो मैंने भी जल्दबाजी में अपना पर्स भूल आई। देखो कुछ और है क्या तुम्हारे पर्स में।" अंजू नें मुस्कुराते कहा

"हाँ है पर मैं वो दे नहीं सकता।" सुनील नें अपना फैसला सुना दिया

"पर ऐसा क्या है, जो नहीं दे सकता" अंजू नें उत्सुकता से पूछा

"यार ये वो चार सौ रुपए है जो तुमने मुझे अपना बिज़नस शुरू करने को दिया था। कितनी दिक्कतें आई मैंने इसे खर्च नहीं किया। और मैं इसे इस्तेमाल नहीं कर सकता बस" सुनील नें सफाई दी

"लेकिन पेमेंट कैसे" अंजू इतना बोल पाई की उसने रोते हुए सुनील को गले से लगा लिया।

इधर मंजर रूमानी होता जा रहा था। तभी बैकग्राउंड से आवाज आई। टेबल नंबर 9 का पेमेंट हो गया है।

दोनों चौंककर मेनेजर को देखने लगे।
हाँ भाई आज आपकी 25वीं डेट है, तो मेरी रेस्टोरेंट नें आपकी ट्रीट को फ्रीबी कर दिया।

दोनों की आँखें मेनेजर को थैंक्यू कर रही थी। और मेनेजर साहब नें आँखों में ही थैंक्यू कबूल भी कर लिया।

- मिश्रा राहुल (डायरी के पन्नो से)
(ब्लॉगिस्ट एवं लेखक) (13-नवम्बर-2016)

लप्रेक १८

काफी देर से बेंच पर बैठे कबीर की आँखों को किसी ने अचानक से आकर अपनी नर्म हथेलियों से ढंक लिया।

गिन्नी फिर तू मुझे पहचानने को कहेगी और मेरा जवाब भी यही रहेगा, "सोते , जागते, उठते, बैठते गिन्नी गिन्नी रहती इर्द-गिर्द।
गिन्नी के हाथ को हटाते हुए कबीर हिचकते हुए बोल पड़ा।


गिन्नी भी मुस्कुरा कर अपनी तारीफों को कबूल किया।

"देख इतनी देर में मुझे हिचकियाँ भी आने लगी", कबीर ने बोला।

हिचकी वाली बात और गिन्नी नें फटाक से जवाब दिया,
"कबीर सांस रोको"
फिर अपनी उँगलियों को दूसरी उँगलियों के सहारे गिनना शुरू किया।
एक, दो, तीन, चार और अब पूरे पांच। हाँ सांस ले सकते हो।

वाह गिन्नी सच-मुच हिचकी छुमंतर। ये तरीका कहाँ से आया, कबीर ने उत्सुकता से पूछा।

गिन्नी नें जवाब में कहा, "तुम्हारी हिचकियों को भी अब पता चल गया मैं आ गयी हूँ और क्या। इतना भी समझ नहीं आता तुम्हे।"

फिर बातें बढ़ते चली गयी कभी ना रुकने वाली बातें।

- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)

लप्रेक १७

श्रुति नें जैसे ही बैग में अपनी साइंस की नोटबुक निकलने को हाथ डाला। उसके हाथों में सफ़ेद बैकग्राउंड पर उभरा गुलाब से लिपटा एक शानदार कार्ड आया। ऊपर की जिल्द ही इतनी खूबसूरत थी की मानो काफी कुछ खुद ही बयाँ कर रही हो।

श्रुति नें कार्ड खोल दिया। उलटे हाथों से लिखे गए उस कार्ड में हैंडराइटिंग जानबूझकर बिगाड़ी गयी थी।


श्रुति से रहा न गया, उसकी निगाहें क्लासरूम के आठों कोनो को एक दफे निहार गयी। पूरी क्लास कहीं ना कहीं व्यस्त थी, वहीँ आठों कोनो में से दो आँखें चार हो गयी।

साथ ही एक मुस्कान नें कार्ड पर अपनी दस्तखत कर, प्यार की बयार पर मुहर लगा दी।

- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवम् लेखक)

लप्रेक 1६

तेज़ वाईफ़ाई और कड़वी कॉफी के बीच अमितेश मानो खो गया। वो जिस टेबल पर बैठा था। उसके ठीक सामने दीवाल पर टंगी पेंटिंग अजीब सा अपनापन झलका, उसे खीचने का प्रयास कर रही थी। पर उसकी कूँची और कैनवास उसकी उंगलियां छोड़ने की इज़ाज़त देने को तैयार ना थी।

पेंटिंग भी अजीब सी उलझी उलझी।मानो किसी डिम लाइट की फोटोग्राफी थी बस जो दो लोगों की छाया नज़र आ रही। उसमें दो प्यालों के बीच में कुछ पुराने फ़टे हुए कूपन, एक साइड से कैंची से कतरे हुए। कुछ सेलफोन टेबल सी चिपका कर रखे हुए।

तेज़ वाईफ़ाई में उसका इंस्टाग्राम बड़े तत्परता से कुछ साइड के कलाकारों को आउटफोकस कर रहा था।
अमितेश शायद कुछ खोज रहा था। इसी तल्लीनता में उसने चार प्याले खाली कर दिए। तभी उसकी सफ़ेद स्क्रीन अचानक रंगबिरंगी हो गयी।

एक रिंग बजी और फ़ोन उठ गया।
एक सांस में सारी कॉफी बातों से खाली कर दी।

पीछे से मेनेजर साहब की आवाज़ आई मुझे बुला रहे थे मेरे बिना पूछे बोल पड़े। वो पागल है साहब। रोज़ आता है कुछ प्याले गतकता फिर कुछ उलटे सीधे पेंटिंग बनाता कुछ फ्रेम कर मुझे दे जाता। मैं भी उसकी बात टाल नहीं पाता। मुझे सच्चे प्यार-मोहब्बत में कोई दिलचस्पी नहीं, पर अमितेश को देखता हूँ तो उसकी पेंटिंग से अंजना मैडम का चेहरा खुद बना लेता हूँ।

क्या यह प्यार नहीं? मेनेजर साहब के प्रश्न नें मुझे तीन सौ साथ डिग्री घुमा दिया और दीवाल पर लगी पेंटिंग ने मुझे अमितेश-अंजना की यादों से।

- मिश्रा राहुल (ब्लोगिस्ट एवं लेखक)
(२१-अगस्त-२०१६) (डायरी के पन्नों से)

लप्रेक १५


इंजन की सीटी नें अचानक विनय को जगा दिया। सामने बोर्ड पर बड़े लाल अक्षरों में लिखा था " विश्व के सबसे लंबे प्लेटफॉर्म पर आपका स्वागत है"। विनय की ख़ुशी का ठिकाना ना था कलाई घुमा के देखा सुबह के नौ बजे थे। वो खुश इसलिए नहीं था कि वह अपने गोरखपुर को विश्व के नक़्शे पर गौरवान्वित देख रहा था। बल्कि उसकी भीनी मुस्कान के पीछे उस बोर्ड का नहीं बल्कि उसके पहले गड़े उस लोहे के बेंच का खास योगदान था। जैसे ही विनय उस बेंच पर बैठ मानो पूरा स्टेशन आठ बरस पीछे चला गया हो।

विनय, उसका पसंदीदा स्काई बैग्स और साथ में गुलाबी सिक्के की इयरिंग्स कानो में फंसाए, सफ़ेद बैकग्राउंड पर ग्राफिटी वाली टीशर्ट पर नीली शार्ट जीन्स पहनी, चपड़ चपड़ बोलने वाली संजना।

तस्वीरें इतनी क्लियर थी की मानो आवाज़ बहार आ रही हो। पर कुछ ऐसा खटका की सब गयाब हो गया। पीछे के मनोज वेंडर से छोटा सा बच्चा आकर बोला विनय सर। आपका एक गिफ्ट पिछले आठ साल से मेरे दूकान पर पड़ा है। उस दिन मैडम भूल से छोड़ गयी थी।

संजना का नाम सुनते ही विनय को अजीब सी बेचैनी हो उठी। मानो वो वो किसी सोने में था पर उठना ना चाह रहा हो।

विनय नें जल्द ही रेपर खोल अंदर थी "द नोटबुक"। विनय को समझ नहीं आया इस नावेल में ऐसा क्या जो संजना बोलना चाह रही हो। बल्कि संजना को अच्छे से पता विनय जेएनयू में अंग्रेजी से पीएचडी करने गया था। साथ ही उसका शौक था अंग्रेजी में। इन साब सवालों का जवाब खोजते बुनते उसनें किताब को तेज़ी से पढना शुरू किया।

उत्सुकता में 224 पन्ने की नावेल को एक घंटे में गटक गया। पर कुछ जवाब मिलता ना देख उसनें किताब को बगल लगा दिया। किताब के रेपर पर कुछ पेंसिल से लिखा था।

"जिसकी ज़िन्दगी में अरमान बड़े होते वो अक्सर मंजिलों तलाश कर लेता है।"

संजना दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर यूनिवर्सिटी से हिंदी में पीएचडी कर रही थी। अब प्यार में हिंदी-इंग्लिस का कॉम्बो अजीब था।
जितना संजना को अंग्रेजी से चिढ़ थी उतनी ही विनय को हिंदी से। फिर भी विनय नें लिखी गुत्थी को हल करने की सोची।

विनय बाहर निकला तो शहर को देखकर चौक गया शहर काफी कुछ बदल चूका था। इन आठ सालों मैं गोरखपुर के तस्वीर बदल गयी थी।
गुत्थी के अनुसार संजना को ढूढ़ना शुरू किया। अरमान, मन्जिल और
ज़िन्दगी से उसनें अंदाज़ा लगाया मोहतरमा नें फ्लैट ले लिया है। फिर क्या था विनय चल पड़ा तारामंडल की ओर। अब बारी थी अरमान ढूढ़ने की उसनें तारामंडल में अरमान नाम के फ्लैट खंगलनें शुरू किये। वो भी जल्द ही मिल गया अरमान रेजीडेंसी। और सामने खड़ी मिली संजना।
संजना को देखकर विनय उससे लिपट गया।

और बोला तुमको पता था मैं आने वाला हूँ। और ये गिफ्ट आज ही रखवाया ना। सब जानता हूँ मैं।

संजना नें मुस्कुराया, " हाँ। और मैं ये जानती थी, कि तुम मेरी पहेली झट से हल कर दोगे।

फिर सारी बातें होती रही। और कब इंजन की तेज़ हॉर्न नें विनय को मीठे सपने से उठा दिया पता ही न चला। उसकी कलाई में शाम के साढ़े छह बज रहे थे। फिर ट्रेन मिस हो गयी।

कुछ लोगो से जानकारी की तो पता चला पिछले आठ सालों से विनय रोज़ सुबह खड़े किसी भी इंजन में आकर सोता है फिर उठकर बाहर बेंच पर बैठता है। फिर कोई किताब उठता और शाम हो जाता।

कोई इतना भी पागल होता किसी के प्यार में।

- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवम् लेखक)
(०६-अगस्त-२०१६)

लप्रेक 14

साक्षी के गोरे से हाथों को अपनी बड़ी हथेली में बिछाकर, संजय लकीरों से लुका छिपी खेल रहा था।
कुछ देर चुप रहा। फिर अचानक से बोल पड़ा। अपनी तेरी जोड़ी सुपरहिट है। हथेलियों के मकड़जाल में से एक धागे को छूकर उसने साबित भी किया।


साक्षी चुपचाप हंसनें लगी और बात बड़े शायराना लहजे में समेट दिया।
"हर रोज़ खोजते हो मेरी हाथो की लकीरों में,
ऐसे छेड़ने के अंदाज़ में भला कौन न फ़िदा हो।"

फिर नज़रों की गुफतगू नें पूरा मंज़र रूमानी कर दिया।

- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवम् लेखक)