बड़ी खामोसी से बैठे हैं फूलो के धरौदे....जरा पूछ बतलाएंगे सारी गुस्ताखिया....!!!______ प्यासे गले में उतर आती....देख कैसे यादों की हिचकियाँ....!!!______ पलके उचका के हम भी सोते हैं ए राहुल....पर ख्वाब हैं की उन पर अटकते ही नहीं....!!!______ आईने में आइना तलाशने चला था मैं देख....कैसे पहुचता मंजिल तो दूसरी कायनात में मिलती....!!! धुप में धुएं की धुधली महक को महसूस करते हुए....जाने कितने काएनात में छान के लौट चूका हूँ मैं....!!!______बर्बादी का जखीरा पाले बैठी हैं मेरी जिंदगी....अब और कितना बर्बाद कर पाएगा तू बता मौला....!!!______ सितारे गर्दिशों में पनपे तो कुछ न होता दोस्त....कभी ये बात जाके अमावास के चाँद से पूछ लो....!!!______"

रविवार, 13 नवंबर 2016

लप्रेक १५


इंजन की सीटी नें अचानक विनय को जगा दिया। सामने बोर्ड पर बड़े लाल अक्षरों में लिखा था " विश्व के सबसे लंबे प्लेटफॉर्म पर आपका स्वागत है"। विनय की ख़ुशी का ठिकाना ना था कलाई घुमा के देखा सुबह के नौ बजे थे। वो खुश इसलिए नहीं था कि वह अपने गोरखपुर को विश्व के नक़्शे पर गौरवान्वित देख रहा था। बल्कि उसकी भीनी मुस्कान के पीछे उस बोर्ड का नहीं बल्कि उसके पहले गड़े उस लोहे के बेंच का खास योगदान था। जैसे ही विनय उस बेंच पर बैठ मानो पूरा स्टेशन आठ बरस पीछे चला गया हो।

विनय, उसका पसंदीदा स्काई बैग्स और साथ में गुलाबी सिक्के की इयरिंग्स कानो में फंसाए, सफ़ेद बैकग्राउंड पर ग्राफिटी वाली टीशर्ट पर नीली शार्ट जीन्स पहनी, चपड़ चपड़ बोलने वाली संजना।

तस्वीरें इतनी क्लियर थी की मानो आवाज़ बहार आ रही हो। पर कुछ ऐसा खटका की सब गयाब हो गया। पीछे के मनोज वेंडर से छोटा सा बच्चा आकर बोला विनय सर। आपका एक गिफ्ट पिछले आठ साल से मेरे दूकान पर पड़ा है। उस दिन मैडम भूल से छोड़ गयी थी।

संजना का नाम सुनते ही विनय को अजीब सी बेचैनी हो उठी। मानो वो वो किसी सोने में था पर उठना ना चाह रहा हो।

विनय नें जल्द ही रेपर खोल अंदर थी "द नोटबुक"। विनय को समझ नहीं आया इस नावेल में ऐसा क्या जो संजना बोलना चाह रही हो। बल्कि संजना को अच्छे से पता विनय जेएनयू में अंग्रेजी से पीएचडी करने गया था। साथ ही उसका शौक था अंग्रेजी में। इन साब सवालों का जवाब खोजते बुनते उसनें किताब को तेज़ी से पढना शुरू किया।

उत्सुकता में 224 पन्ने की नावेल को एक घंटे में गटक गया। पर कुछ जवाब मिलता ना देख उसनें किताब को बगल लगा दिया। किताब के रेपर पर कुछ पेंसिल से लिखा था।

"जिसकी ज़िन्दगी में अरमान बड़े होते वो अक्सर मंजिलों तलाश कर लेता है।"

संजना दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर यूनिवर्सिटी से हिंदी में पीएचडी कर रही थी। अब प्यार में हिंदी-इंग्लिस का कॉम्बो अजीब था।
जितना संजना को अंग्रेजी से चिढ़ थी उतनी ही विनय को हिंदी से। फिर भी विनय नें लिखी गुत्थी को हल करने की सोची।

विनय बाहर निकला तो शहर को देखकर चौक गया शहर काफी कुछ बदल चूका था। इन आठ सालों मैं गोरखपुर के तस्वीर बदल गयी थी।
गुत्थी के अनुसार संजना को ढूढ़ना शुरू किया। अरमान, मन्जिल और
ज़िन्दगी से उसनें अंदाज़ा लगाया मोहतरमा नें फ्लैट ले लिया है। फिर क्या था विनय चल पड़ा तारामंडल की ओर। अब बारी थी अरमान ढूढ़ने की उसनें तारामंडल में अरमान नाम के फ्लैट खंगलनें शुरू किये। वो भी जल्द ही मिल गया अरमान रेजीडेंसी। और सामने खड़ी मिली संजना।
संजना को देखकर विनय उससे लिपट गया।

और बोला तुमको पता था मैं आने वाला हूँ। और ये गिफ्ट आज ही रखवाया ना। सब जानता हूँ मैं।

संजना नें मुस्कुराया, " हाँ। और मैं ये जानती थी, कि तुम मेरी पहेली झट से हल कर दोगे।

फिर सारी बातें होती रही। और कब इंजन की तेज़ हॉर्न नें विनय को मीठे सपने से उठा दिया पता ही न चला। उसकी कलाई में शाम के साढ़े छह बज रहे थे। फिर ट्रेन मिस हो गयी।

कुछ लोगो से जानकारी की तो पता चला पिछले आठ सालों से विनय रोज़ सुबह खड़े किसी भी इंजन में आकर सोता है फिर उठकर बाहर बेंच पर बैठता है। फिर कोई किताब उठता और शाम हो जाता।

कोई इतना भी पागल होता किसी के प्यार में।

- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवम् लेखक)
(०६-अगस्त-२०१६)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें