स्वयं
से विरह,
खुद को तलाशता
हज़ारो मंदाकिनियों
को टटोलता हुआ,
आवृत्ति करता
रहता अचेतन मन।
चेतना शून्य
शिथिल ध्वनि तरंगो
की तीव्रता धूमिल,
ख़्वाहिशों
के अवसादों
से टकराकर,
पुनः कोई
आकृति
कुरेदता रहता।
- खामोशियाँ -२०१७
भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
स्वयं
से विरह,
खुद को तलाशता
हज़ारो मंदाकिनियों
को टटोलता हुआ,
आवृत्ति करता
रहता अचेतन मन।
चेतना शून्य
शिथिल ध्वनि तरंगो
की तीव्रता धूमिल,
ख़्वाहिशों
के अवसादों
से टकराकर,
पुनः कोई
आकृति
कुरेदता रहता।
- खामोशियाँ -२०१७
पुराने
कैलेंडर सी
खुद को
दोहराते जाती
है जिंदगी भी।
कुछ
तारीखों पे
लाल गोले,
यादों पर
बिंदी रखते।
कुछ गुम
हुए त्योहार
अपनी अलग
कहानियां सुनाते।
तारीखों
के इर्द गिर्द
सपने बुने जाते।
उन्ही सपनो
में पर लगाकर,
दूसरे कैलेंडर
तक पहुँच जाते।
खोती
कहां है
तारीखें।
चली आती
हर बार उसी
लिबास में,
खुद को
दोहराने
और यादों को
फिर से गाढ़ा करने।
पुराने
कैलेंडर सी
खुद को
दोहराते जाती
है जिंदगी भी।
- मिश्रा राहुल
(27-जून-2017)
मैं हूँ
खुद में कहीं,
खोया हूँ
खुद में कहीं।
बदलकर
भी देखा,
बहलकर
भी देखा।
खोजता हूँ
खुद को वहीं,
जहां छोड़ा था
तुझ को वहीं।
मैं में
मैं हूँ,
कि नहीं।
तुझ में
मैं हूँ
कि नहीं।
जानता
हूँ ऐसा,
ना जानकर
हूँ ऐसा।
चाहता हूँ
रहूं मैं खुद में।
खोज रहा हूँ
खुद को
खुद में ही कहीं।
- मिश्रा राहुल
(1-मई-2017)