बड़ी खामोसी से बैठे हैं फूलो के धरौदे....जरा पूछ बतलाएंगे सारी गुस्ताखिया....!!!______ प्यासे गले में उतर आती....देख कैसे यादों की हिचकियाँ....!!!______ पलके उचका के हम भी सोते हैं ए राहुल....पर ख्वाब हैं की उन पर अटकते ही नहीं....!!!______ आईने में आइना तलाशने चला था मैं देख....कैसे पहुचता मंजिल तो दूसरी कायनात में मिलती....!!! धुप में धुएं की धुधली महक को महसूस करते हुए....जाने कितने काएनात में छान के लौट चूका हूँ मैं....!!!______बर्बादी का जखीरा पाले बैठी हैं मेरी जिंदगी....अब और कितना बर्बाद कर पाएगा तू बता मौला....!!!______ सितारे गर्दिशों में पनपे तो कुछ न होता दोस्त....कभी ये बात जाके अमावास के चाँद से पूछ लो....!!!______"
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मंगलवार, 11 जुलाई 2017

विरह

स्वयं
से विरह,

खुद को तलाशता
हज़ारो मंदाकिनियों
को टटोलता हुआ,

आवृत्ति करता
रहता अचेतन मन।

चेतना शून्य
शिथिल ध्वनि तरंगो
की तीव्रता धूमिल,

ख़्वाहिशों
के अवसादों
से टकराकर,

पुनः कोई
आकृति
कुरेदता रहता।

- खामोशियाँ -२०१७

मंगलवार, 27 जून 2017

Calender

पुराने
कैलेंडर सी
खुद को
दोहराते जाती
है जिंदगी भी।

कुछ
तारीखों पे
लाल गोले,
यादों पर
बिंदी रखते।

कुछ गुम
हुए त्योहार
अपनी अलग
कहानियां सुनाते।

तारीखों
के इर्द गिर्द
सपने बुने जाते।

उन्ही सपनो
में पर लगाकर,
दूसरे कैलेंडर
तक पहुँच जाते।

खोती
कहां है
तारीखें।

चली आती
हर बार उसी
लिबास में,
खुद को
दोहराने
और यादों को
फिर से गाढ़ा करने।

पुराने
कैलेंडर सी
खुद को
दोहराते जाती
है जिंदगी भी।

- मिश्रा राहुल
(27-जून-2017)

सोमवार, 1 मई 2017

मैं हूँ

मैं हूँ
खुद में कहीं,
खोया हूँ
खुद में कहीं।

बदलकर
भी देखा,
बहलकर
भी देखा।

खोजता हूँ
खुद को वहीं,
जहां छोड़ा था
तुझ को वहीं।

मैं में
मैं हूँ,
कि नहीं।
तुझ में
मैं हूँ
कि नहीं।

जानता
हूँ ऐसा,
ना जानकर
हूँ ऐसा।

चाहता हूँ
रहूं मैं खुद में।
खोज रहा हूँ
खुद को
खुद में ही कहीं।

- मिश्रा राहुल
(1-मई-2017)

बुधवार, 6 जनवरी 2016

चित्रकारी Vs कलमकारी।



एक
जैसी लगती
तेरी चित्रकारी
और मेरी
कलमकारी।

लिखता
हूं तो एहसास
कैनवास हो जाता।
अल्फ़ाज़
मेरी कूंची बन जाती।

क्यूँ ना
कभी ऐसा हो,
तेरी स्केचिंग
के कैनवास पर,

मैं शब्दों के
गौहर सजा दूं।
और तू मेरी
ग़ज़ल पर
अपने रंगो का
टीका कर दे।

- मिश्रा राहुल

रविवार, 3 जनवरी 2016

कार्बन


एक
कार्बन रखकर

एहसासों को
गाढ़ा कर,

कुछ
सफ़ेद पन्ने पे
उभरेंगी तारीखें।

नज़र
का टीका
करके गोला मार देना।
आजकल
जमाना खराब है।


- मिश्रा राहुल

बुधवार, 20 मई 2015

प्रेम का क्रीम बिस्कुट



दो
जुड़वे जोड़े,
बिलकुल
एक ही शक्ल के।


एक दूसरे
के इतने करीब
कि फर्क ही
ना बता पाए कोई।

दोनों
के बीच
जमी रहती
ताउम्र
प्रेम की
मीठी क्रीम।

देखा होगा
आपने कई रोज
ऐसा
प्रेम का क्रीम बिस्कुट।
_______________
©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल

रविवार, 26 अप्रैल 2015

उम्मीदों का भूकंप



हर शब
कई ख्वाब टूटते।
हर पल
यादों की इमारत ढहती।

उम्र भर की कमाई,
एक ही
पल में बिखर जाती।

दबे रहते
मलबे तले
लाखों एहसास।

तड़प कर
दम तोड़ते,
जाने कितनी
फरियादें।

ऐसे तो
हर रोज ही
आता है
उम्मीदों का भूकंप।

बुधवार, 8 अप्रैल 2015

ख्वाबों का घोसला



अकसर
दिल के
मुंड़ेर पर बैठती,
एक प्यारी सी गौंरैया।

चुन-चुनकर
चोंच से लम्हे,
बनाया करती।
छोटे-छोटे
ख्वाबों का घोसला।

खुशियों
को इर्द-गिर्द
बसाए निहारती।
पर अचानक
आ गया
गमों का तूफान।

बस
बिखर गया
उम्मीदों से सजाया
ख्वाहिशों का घोसला।

दिल
की गौरैया भी
गिर पड़ी
सूखी सतह पर।

तड़प रही
उसकी
आँखों के आगे।
उड़कर
जा रहे
यादों के फटे पुर्जे।

सुबह
सारे तिनके
इकट्ठा थे।
हवाओं ने
इतना कर दिया।

गौरैया
खिल पड़ी,
देखते ही देखते।
फिर बन गया
ख्वाबों का घोसला।
_____________
ख्वाबों का घोसला
©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल

शुक्रवार, 13 मार्च 2015

सब ठीक है



दिन मुंह
चिढ़ाता रहता,
पूछता कैसे हो
आजकल तुम।

मैं भी
चुप सा रहता
कुछ
देर बाद कहता।

जैसा
छोड़ गया था
एक अरसे पहले
बस वैसे ही हूँ।

बस थोड़ा
घमंडी हो गया था।
बस थोड़ा
गुस्सैल हो गया था।

अब
धरा-तल पे हूँ।
नहीं उड़ना ऊंचा।
नहीं हँसना
गला फाड़कर।

अब
शांत सा है,
सब कुछ तो।
अब
शिथिल सा है
अरमान अपना।
सब खुश
पर मन में हलचल।

थोड़ा
निर्जीव सा
हो गया हूँ
बाकी
ए ज़िंदगी
सब ठीक है।
__________
©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से) (१३-मार्च-२०१५)

बुधवार, 4 मार्च 2015

ज़िंदगी की सिग्नल



ज़िंदगी
भी कितने
सिग्नल क्रॉस
करती आगे ही बढ़ती।

लाल देख
रुकती नहीं।
हरे पर जरा
सहम सी जाती।

यादों
की चालान
काटे भी गर कोई।
तो उम्मीदों
की रिश्वत थमा
आगे बढ़ती जाती।

ये ज़िंदगी
भी कितने
सिग्नल क्रॉस
करती आगे ही बढ़ती।
_________________
ज़िंदगी की सिग्नल
©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से) (०५-मार्च-२०१५)

शनिवार, 17 जनवरी 2015

ज़िंदगी की नाव



चलें आज
ज़िंदगी के भंवर में
यादों की नाव उतारे।

उदास
लम्हों को
बीच से फ़ोल्ड* करे।

टूटे
ख्वाबों को खुद
अटैच* कर पास लाए।

अपने
वादों को
ऊपर खुद चढ़ा आए।

बस
वादों को
लम्हों में
अल्टी-पलटी करे।

ज़रा सा
खोल दें बाहें
तैयार खड़ी आपकी नाव।

चलें आज
ज़िंदगी के भंवर में
यादों की नाव उतारे।
___________________
ज़िंदगी की नाव | मिश्रा राहुल
©खामोशियाँ-२०१५ | १७-जनवरी-२०१५

बुधवार, 7 जनवरी 2015

एखट-दुक्खट

कभी
आ ज़िंदगी
एखट-दुक्खट खेलें।

खांचे खींचे,
पहला पूरा,
दूसरा आधे
पर कटा हुआ।

आता है ना??
तुझे पूरा
खांचा खींचना।

गोटी फेंकें
बढ़ाएँ चाल।
चल जीतें
घर बनाए ।

अपने
घर में
आराम से रुकें
सुकून पाए।

फिर
जल्दी निकल दूसरे
के पाले फांग जाए।

कभी
आ ज़िंदगी फिर से
एखट-दुक्खट खेलें।

©खामोशियाँ-२०१४॥ मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से) (०४-जनवरी-२०१५)

बुधवार, 31 दिसंबर 2014

पुरानी साँझ



आज
पुरानी साँझ
फिर पास आई।

कभी
चुपके-चुपके
खूब चुगलियाँ
करती थी तेरी।

आज
हौले से
मेरे कानो में
कुछ बुदबुदाई।

सुनाई
ना दिया कुछ
हाँ सिसकियाँ कैद है।
कानो के इर्द-गिर्द
और थोड़े भीगे
एहसासों के खारे छींटे भी।

आज
पुरानी साँझ
फिर पास आई।
___________________
पुरानी साँझ - मिश्रा राहुल
©खामोशियाँ // (डायरी के पन्नो से)

सोमवार, 29 दिसंबर 2014

जेबों से खुशियाँ निकाले


आ चले
जेबों से खुशियाँ निकाले,
आ चले
वक़्त से कड़ियाँ निकाले।

अंजान बस्तियों
में घूम-घूमकर
वीरान कसतियों
में झूम-झूमकर।
दर्द की
साखों से मस्तियाँ निकाले।

आ चले
जेबों से खुशियाँ निकाले,
आ चले
वक़्त से कड़ियाँ निकाले।

ख्वाब कौन देखता
कौन देखेगा।
जवाब कौन ढूँढता
कौन ढूंढेगा।
गलियों के
सन्नाटों से परछाइयाँ निकाले।

आ चले
जेबों से खुशियाँ निकाले,
आ चले
वक़्त से कड़ियाँ निकाले।

हमदम हरकदम
साथ चलता रहेगा,
जानम जानेमन
याद करता रहेगा।
टूट कर
इरादों से तनहाईयाँ निकाले।

आ चले
जेबों से खुशियाँ निकाले,
आ चले
वक़्त से कड़ियाँ निकाले।
_____________________
जेबों से खुशियाँ निकाले - मिश्रा राहुल
©खामोशियाँ-२०१४ (२९-दिसम्बर-२०१४)

शनिवार, 27 दिसंबर 2014

फूटबाल ज़िंदगी


ज़िंदगी 
फूटबाल ठहरी...
पाले
बदल-बदलकर....
घिसटती रहती....!!

मंज़िल
के पास
पहुँचते ही,

एक जोर
का झटका
फिरसे पाले में
लाकर
खड़ा कर देता...!!

चलो
खुदा न खासते
मंज़िल
मिल भी जाए...
तो भी क्या...???

फिर
से वही
खेल खेलना
फिर से बीच में
परोसा जाना...!!!

मेरा कभी
एक शागिर्द
ना होता
होते ढेरों सारे...!!

मुझे मारकर
खुश होते
जश्न मनाते....!!!

मैं भी
खुश होता
उन्हे देखकर...!!

फिर किसी
अंधेरी कोठरी में
बैठा इंतज़ार करता

कोई आए
मुझे मारकर
खुद को सुकून पहुंचाए....!!!

ज़िंदगी
फूटबाल ठहरी...
पाले
बदल-बदलकर....
घिसटती रहती....!!

©खामोशियाँ - २०१४ // २८-दिसम्बर-२०१४

शनिवार, 20 दिसंबर 2014

विरह



विरह
चेतनाशून्य मन...
कोलाहल है हरसू...!!

संवेदना धूमिल..
सामर्थ्य विस्थापित
मन करोड़ों
मंदाकिनियों में भ्रमण...!!

काल-चक्र में
फंसा अकेला मनुज,
जिद
टटोलता चलता...!!

विस्मृत होती
अनुभूतियों में
शाश्वत सत्य खोजता..!!

संचित
प्रारब्ध के
गुना-भाग
हिसाब में उलझा

स्वप्न और यथार्थ में
स्वतः स्पंदन करता रहता...!!

©खामोशियाँ-२०१४ // मिश्रा राहुल // १७-१२-२०१४

शनिवार, 13 दिसंबर 2014

ज़िन्दगी की किताब



लिखी है
थोड़ी बहुत
हमने भी
ज़िन्दगी
की किताब

कुछ टूटे
फाउंटेन पेन*
कुछ लाल
धब्बे मौजूद हैं
पहले ही
पन्ने पर.....!!

तारीखे हैं,
बेहिसाब
एक बगल
पूछती हैं
ढेरों सवाल..!!

दर्ज़ हैं
सूरज की
गुस्ताखियाँ
दर्ज़ हैं
ओस की
अठखेलियाँ...!!

रिफिल*
नहीं
हो पाते हैं
कुछ रिश्ते,
तभी आधे
पन्ने भी
बेरंग से लगते .....!!

*Fountain Pen *Refill
©खामोशियाँ-२०१४ // मिश्रा राहुल // १३-दिसंबर-२०१४

बुधवार, 10 दिसंबर 2014

हाँ मैं गुस्सैल हूँ



हाँ मैं
गुस्सैल हूँ...!!

रोज
सपने अपने
खोजता हूँ...!!

रोज गैरों
में अपना
खोजता हूँ...!!

अपने छोड़
देते अक्सर
दामन मेरा...

मैं फिर
भी उन्ही
को खोजता हूँ...!!

किस हाल
में होंगे वो...
इसी बात
को पकड़
सोचता हूँ...!!

चिल्लाकर
झल्लाकर
फिर वापस
वहीँ को
लौटता हूँ...!!

हाँ मैं
गुस्सैल हूँ...!!

©खामोशियाँ-२०१४ // मिश्रा राहुल // १०-दिसम्बर-२०१४

शनिवार, 6 दिसंबर 2014

लूडो खेलती है



लूडो
खेलती है
ज़िन्दगी हमसे अक्सर....!!

पासे
फेंकते
किस्मती छः
लाने खातिर बेताब होते...!!

किस्मत
खुलती छः
आते भी तो तीन बार...!!

अपने लोगों
को काट उनके
सफ़र दुबारा शुरू करते...!!

वही रास्ते
वहीँ गलियाँ
दुबारा मिलती जाती...!!

कहाँ से
चोट खाकर
वापस गए...
कहाँ से
जीत की
बुनियाद रखे....!!!

हरे...लाल...
पीले...नीले...
सारे भाव
चलते साथ-साथ...!!

कभी
गुस्सैल लाल
जीत जाता...
कभी
शर्मीला नीला
ख़ुशी मनाता...!!

पीला
सीधा ठहरा
सबको भा जाता...!!
हरा
नवाब ठहरा
नवाबी चाल चलता...!!

दिन
होता ना
हर रोज़ किसी का
कभी
कोई रोता
तो कोई मनाता...!!

लूडो
खेलती रहती
ये ज़िन्दगी अक्सर...!!!

©ख़ामोशियाँ-२०१४ // मिश्रा राहुल // ०५-दिसम्बर-२०१४

रविवार, 30 नवंबर 2014

एहसासों की पेंटिंग


अकसर
कूंची मुँह में
दबा दबाकर।

कैनवस
भरती है
बेचारी जिंदगी।

सारे
ख्याल रंगों की
प्याली में घोलकर।

ब्रश
डोलाती जाती
उसे पता न होता
कब उसने क्या उकेरा।

फिर
शान बढ़ाती है
किसी अमीरज़ादे
के ड्राइंग रूम की।

आखिर
खरीदा है जो
उसने एहसासों भरी
ख्वाबों की हमारी पेंटिंग ।

कॉपीराइट © खामोशियाँ - २०१४ - मिश्रा राहुल