बड़ी खामोसी से बैठे हैं फूलो के धरौदे....जरा पूछ बतलाएंगे सारी गुस्ताखिया....!!!______ प्यासे गले में उतर आती....देख कैसे यादों की हिचकियाँ....!!!______ पलके उचका के हम भी सोते हैं ए राहुल....पर ख्वाब हैं की उन पर अटकते ही नहीं....!!!______ आईने में आइना तलाशने चला था मैं देख....कैसे पहुचता मंजिल तो दूसरी कायनात में मिलती....!!! धुप में धुएं की धुधली महक को महसूस करते हुए....जाने कितने काएनात में छान के लौट चूका हूँ मैं....!!!______बर्बादी का जखीरा पाले बैठी हैं मेरी जिंदगी....अब और कितना बर्बाद कर पाएगा तू बता मौला....!!!______ सितारे गर्दिशों में पनपे तो कुछ न होता दोस्त....कभी ये बात जाके अमावास के चाँद से पूछ लो....!!!______"

शनिवार, 20 दिसंबर 2014

विरह



विरह
चेतनाशून्य मन...
कोलाहल है हरसू...!!

संवेदना धूमिल..
सामर्थ्य विस्थापित
मन करोड़ों
मंदाकिनियों में भ्रमण...!!

काल-चक्र में
फंसा अकेला मनुज,
जिद
टटोलता चलता...!!

विस्मृत होती
अनुभूतियों में
शाश्वत सत्य खोजता..!!

संचित
प्रारब्ध के
गुना-भाग
हिसाब में उलझा

स्वप्न और यथार्थ में
स्वतः स्पंदन करता रहता...!!

©खामोशियाँ-२०१४ // मिश्रा राहुल // १७-१२-२०१४

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