भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
शनिवार, 20 दिसंबर 2014
विरह
विरह
चेतनाशून्य मन...
कोलाहल है हरसू...!!
संवेदना धूमिल..
सामर्थ्य विस्थापित
मन करोड़ों
मंदाकिनियों में भ्रमण...!!
काल-चक्र में
फंसा अकेला मनुज,
जिद
टटोलता चलता...!!
विस्मृत होती
अनुभूतियों में
शाश्वत सत्य खोजता..!!
संचित
प्रारब्ध के
गुना-भाग
हिसाब में उलझा
स्वप्न और यथार्थ में
स्वतः स्पंदन करता रहता...!!
©खामोशियाँ-२०१४ // मिश्रा राहुल // १७-१२-२०१४
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