भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
शनिवार, 27 दिसंबर 2014
फूटबाल ज़िंदगी
ज़िंदगी
फूटबाल ठहरी...
पाले
बदल-बदलकर....
घिसटती रहती....!!
मंज़िल
के पास
पहुँचते ही,
एक जोर
का झटका
फिरसे पाले में
लाकर
खड़ा कर देता...!!
चलो
खुदा न खासते
मंज़िल
मिल भी जाए...
तो भी क्या...???
फिर
से वही
खेल खेलना
फिर से बीच में
परोसा जाना...!!!
मेरा कभी
एक शागिर्द
ना होता
होते ढेरों सारे...!!
मुझे मारकर
खुश होते
जश्न मनाते....!!!
मैं भी
खुश होता
उन्हे देखकर...!!
फिर किसी
अंधेरी कोठरी में
बैठा इंतज़ार करता
कोई आए
मुझे मारकर
खुद को सुकून पहुंचाए....!!!
ज़िंदगी
फूटबाल ठहरी...
पाले
बदल-बदलकर....
घिसटती रहती....!!
©खामोशियाँ - २०१४ // २८-दिसम्बर-२०१४
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
-
बरसात में भीगती शाम में अकेले तनुज अपनी दूकान में बैठा रास्ता निहार रहा था सुबह से एक भी कस्टमर दुकान के अन्दर दाखिल नहीं हुआ। तनुज से ब...
-
सूनी वादियों से कोई पत्ता टूटा है, वो अपना बिन बताए ही रूठा है। लोरी सुनाने पर कैसे मान जाए, वो बच्चा भी रात भर का भूखा है। बिन पिए अब...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें