भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
मंगलवार, 9 दिसंबर 2014
धीरे-धीरे
कुछ ऐसे ही फिसलता है मंज़र धीरे धीरे,
कुछ ऐसे ही निकलता है खंजर धीरे धीरे....!!
सपने मौजों की तरह ही उठकर बिखरते,
आँखों में उतरता है समुन्दर धीरे धीरे....!!
बात जुबान की कुछ ऐसे टूटती जेहन में,
दिल ऐसे ही बदलता हैं बंजर धीरे धीरे....!!
लोग मोम के बाजू लगाए घरों से निकलते,
जिस्म ऐसे पिघलता हैं जर्जर धीरे धीरे....!!
टूटे फ्रेम में ऐसे चिपकी है तस्वीर बनकर,
यादों में ऐसे महकता हैं मंज़र धीरे धीरे....!!
©खामोशियाँ-२०१४ // मिश्रा राहुल // ०९-दिसम्बर-२०१४
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
-
बरसात में भीगती शाम में अकेले तनुज अपनी दूकान में बैठा रास्ता निहार रहा था सुबह से एक भी कस्टमर दुकान के अन्दर दाखिल नहीं हुआ। तनुज से ब...
-
सूनी वादियों से कोई पत्ता टूटा है, वो अपना बिन बताए ही रूठा है। लोरी सुनाने पर कैसे मान जाए, वो बच्चा भी रात भर का भूखा है। बिन पिए अब...
कल 14/दिसंबर/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !
अरे वाह.. धीरे धीरे में बड़ी बातें!
जवाब देंहटाएं