भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
सोमवार, 29 दिसंबर 2014
जेबों से खुशियाँ निकाले
आ चले
जेबों से खुशियाँ निकाले,
आ चले
वक़्त से कड़ियाँ निकाले।
अंजान बस्तियों
में घूम-घूमकर
वीरान कसतियों
में झूम-झूमकर।
दर्द की
साखों से मस्तियाँ निकाले।
आ चले
जेबों से खुशियाँ निकाले,
आ चले
वक़्त से कड़ियाँ निकाले।
ख्वाब कौन देखता
कौन देखेगा।
जवाब कौन ढूँढता
कौन ढूंढेगा।
गलियों के
सन्नाटों से परछाइयाँ निकाले।
आ चले
जेबों से खुशियाँ निकाले,
आ चले
वक़्त से कड़ियाँ निकाले।
हमदम हरकदम
साथ चलता रहेगा,
जानम जानेमन
याद करता रहेगा।
टूट कर
इरादों से तनहाईयाँ निकाले।
आ चले
जेबों से खुशियाँ निकाले,
आ चले
वक़्त से कड़ियाँ निकाले।
_____________________
जेबों से खुशियाँ निकाले - मिश्रा राहुल
©खामोशियाँ-२०१४ (२९-दिसम्बर-२०१४)
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
-
बरसात में भीगती शाम में अकेले तनुज अपनी दूकान में बैठा रास्ता निहार रहा था सुबह से एक भी कस्टमर दुकान के अन्दर दाखिल नहीं हुआ। तनुज से ब...
-
सूनी वादियों से कोई पत्ता टूटा है, वो अपना बिन बताए ही रूठा है। लोरी सुनाने पर कैसे मान जाए, वो बच्चा भी रात भर का भूखा है। बिन पिए अब...
वाह..सलाम इस ज़ज्बे को...बहुत प्रभावी रचना...
जवाब देंहटाएं