भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
शनिवार, 13 दिसंबर 2014
वक़्त
वक़्त बदला नहीं तो क्या करे,
दिल सम्हला नहीं तो क्या करे....!!!
उम्मीदें थी बड़ी तम्मना भी थी,
दर्द पिघला नहीं तो क्या करे....!!!
रातों को तारें गिने हमने रोज़,
चाँद निकला नहीं तो क्या करे...!!!
जान निकाल दिए जान के लिए,
प्यार पहला नहीं तो क्या करे...!!!
आँखें भिगोई बातें याद करके,
दिल दहला नहीं तो क्या करे...!!!
उम्र बस सहारा ढूंढते रह गयी,
कोई बहला नहीं तो क्या करे...!!!
गैर ही रहा ताउम्र हर आईने से,
अक्स बदला नहीं तो क्या करे...!!!
©खामोशियाँ-२०१४ // मिश्रा राहुल // १३-दिसम्बर-२०१४
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वक्त की हक़ीकत बयाँ करती सुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं...क्या लिखते हैं आप...आपकी रचनाएँ दिल को छू लेतीं हैं.
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