बड़ी खामोसी से बैठे हैं फूलो के धरौदे....जरा पूछ बतलाएंगे सारी गुस्ताखिया....!!!______ प्यासे गले में उतर आती....देख कैसे यादों की हिचकियाँ....!!!______ पलके उचका के हम भी सोते हैं ए राहुल....पर ख्वाब हैं की उन पर अटकते ही नहीं....!!!______ आईने में आइना तलाशने चला था मैं देख....कैसे पहुचता मंजिल तो दूसरी कायनात में मिलती....!!! धुप में धुएं की धुधली महक को महसूस करते हुए....जाने कितने काएनात में छान के लौट चूका हूँ मैं....!!!______बर्बादी का जखीरा पाले बैठी हैं मेरी जिंदगी....अब और कितना बर्बाद कर पाएगा तू बता मौला....!!!______ सितारे गर्दिशों में पनपे तो कुछ न होता दोस्त....कभी ये बात जाके अमावास के चाँद से पूछ लो....!!!______"

बुधवार, 28 दिसंबर 2016

दोस्त

रानीसार, बीकानेर से करीब सौ किलोमीटर पश्चिम की तरफ पाकिस्तान सीमा पर बसा एक छोटा सा गाँव। जहां गर्मी मे तापमान करीब 45 डिग्री रहता तो ठंड मे दुबुक कर 5 डिग्री तक चला जाता। सीमा पर होने की वजह से यह क्षेत्र कुछ ज्यादा ही संवेदनशील था।

अनिल अग्रवाल अपने छोटे से परिवार के साथ यही रहा करते थे। उनके परिवार मे अनिल बाबू उनकी बीबी और हीरो था। अनिल बाबू का कोई बच्चा नहीं था, वो हीरो पर ही अपनी जान छिटकते थे।

हीरो...उनका प्यारा सा ऊंट। अनिल बाबू की दुकान भी थी पास के क्षेत्र मे, बहुत बड़ी तो नहीं पर इतनी थी की उनका गुजर बसर हो जाता था। दुकान का नाम भी अनिल बाबू “हीरो मिष्ठान भंडार” ही रखे थे। उनके और हीरो के चर्चे पूरे गाँव मे छाए रहते थे। मजाल है कोई उनके दुकान मे आ जाए और बिना हीरो की सलामती पूछे चला जाए। अनिल बाबू गुस्सा हो जाते थे।

हीरो भी तो उन्हे काफी प्यार करता था। जब भी वो पास आते तो अपनी बड़ी सी गर्दन नीचे झुकाए कानो मे कुछ फुसफुसाता था। जो केवल अनिल बाबू ही समझते थे शायद।

अनिल अग्रवाल पेशे से हलवाई नहीं थे, पर श्रीमती के दूर ना जाने की हठ के वजह से उन्होने अपना मनपसंद काम छोड़ दिया था। हाँ मनपसंद काम, वो एक गाइड थे। जूनागढ़ का किला, लक्ष्मी निवास महल, लालगढ़ महल कभी उनके जुबान से चिपके रहते थे। अब तक तो सब भूल गए, पर हाँ यादें हैं अभी भी उनके पास ताज़ी बची। कैसे उन्होने हीरो को पाया था, कैसे उनके बीच दोस्ती बढ़ी थी।

फिर भी अनिल बाबू खुश थे। उनका कारोबार अच्छा चल रहा था हर दिन जैसे। आज सुबह सुबह उनको फोन आया दुकान का समान खत्म हो गया है। अनिल बाबू अक्सर शहर जाकर समान खरीद के लाते थे। इसी बहाने वो और हीरो घूम के भी आते थे। खाना बंध गया और सब निकलने वाले थे कि कुछ अनहोनी की आशंका ने माया अग्रवाल के चेहरे को ढाँप लिया। वो माना करने लगी ऐसा वो हमेशा तो नहीं करती थी। पर हीरो और अनिल बाबू कहाँ मानने वाले थे। आखिर महीने मे एक बारगी शहर जो घूमने को मिलता। दोनों निकल ही पड़े।

अभी कुछ पाँच मील ही चले होंगे की अचानक एक रेतीले तूफान उनके रास्ते मे अवरोध बनके खड़ा हो गया। तूफान इतना तगड़ा था कि अब तो अनिल बाबू को बस माया की कही हर बात सच जमाने लगी थी। अब तो तूफान और दहाड़ने लगा था आगे जाना मुमकिन नहीं था और हारकर हीरो-अनिल वापस लौटने की कोशिश करने लगे। करीब 15 मिनट बाद तूफान कुछ थमा। लौटते वक़्त अनिल के मन मे सैंकड़ों खयाल जन्म ले लेकर मर रहे थे। उन्हे आते-आते करीब डेढ़ घंटे लग गए। वो सोचते सोचते घर आ गए पर घर तो कहीं था नहीं, ना ही उनकी दुकान। माया को भी बहुत ढूँढे पर मिली नहीं।

थक हार कर बैठे अनिल बाबू को रामदरश मिस्त्री ने बताया भैया भौजी को काफी चोट लग गयी है पास के अस्पताल मे भर्ती है आप तुरंत पहुंचिए। आनन-फानन मे अनिल बाबू-हीरो जल्दी से वहाँ पहुंचे तो पता चला कि माया के सर मे गंभीर चोट आई है ऑपरेशन करना पड़ेगा। अब सर पकड़ बैठे अनिल बाबू की दुकान तो ईश्वर ने लील ली, बीबी बिस्तरा पकड़े बैठी है और बैंक मे इतने पैसे हैं नहीं की इलाज हो। अनिल बाबू को मानो क्या हो गया, बड़े ही सालीन विचारधारा के अनिल अग्रवाल को आजतक हमने इतना परेशान कभी नहीं देखा था। पास खड़े देवेन्द्र चाचा ने कहाँ बेटा अनिल देखो सुनील सिंह राजपूत से मदद लो अब वही कुछ मदद कर सकेंगे। सुनील सिंह उस जगह के साहूकार हुआ करते थे।

अनिल बाबू ने बिना समय गवाए तुरंत उनके यहाँ जाके के अपनी कहानी बतलाई। पर साहूकार कहाँ सुनते किसी की बस यही बोलते रहे कुछ हैं गिरवी रखने को तो बताओ वर्ण अपना समय ना खराब करो। अनिल बाबू के पास था ही क्या जो वो रखते शायाद कुछ नहीं। जाते जाते सुनील ने कहाँ “अनिल एक मशवरा दूँ, तुम्हारे पास एक ऐसी चीज है जिसके बदले मैं तुम्हें अच्छी ख़ासी रकम दे सकता हूँ। जिससे भाभी भी ठीक हो जाएंगी और तुम अपना कारोबार जिला भी सकोगे....ये ऊंट खड़ा है ये हमे दे दो।” इतना सुनते ही अनिल अग्रवाल अपना आपा खो बैठे, जाने क्या अनाब-सनाब बकने लगे सुनील सिंह को। फिर भी सुनील सिंह ने कहाँ अनिल अभी तुम परेशान हो हम तुम्हारी बात का बुरा नहीं माने कल तक बताना। रही बात ऊंट की तो जैसे ही तुम अपने पैसे चुकता करोगे लिए जाना उसे यहाँ से।

अनिल बाबू अब और जटिल धर्मसंकट मे फंस चुके थे। एक तरफ दुकान, दूसरी तरफ बीबी और अब हीरो सब उनको अपने पास से जाते हुए ही दिख रहे थे। अचानक एक रोज़ मे जैसे उनपर पहाड़ सा टूट पड़ा था। उन्होने हीरो को प्यार से पुचकारा। हीरो भी बार बार भाभी की ओर इशारा कर कुछ समझाना चाह रहा था। शायद अनिल बाबू समझ भी रहे थे पर आज उनकी समझ उनके लगाव पर हावी नहीं हो पा रही थी। पर हीरो ने उन्हे माना ही लिया, ठीक उसी तरह गर्दन झुका के कान मे कुछ फुसफुसाया जो केवल अनिल बाबू समझते थे।

भोर हुई और हीरो को लेकर सुनील सिंह के यहाँ पहुँच गए अनिल बाबू। बात पक्की हो गयी। जाते जाते अनिल बाबू ने हीरो के माथे को चूमा और दिलासा दिया बहुत जल्द आने का। आँखें तो नाम थी हीरो की भी और अनिल बाबू की भी पर शायद नियति को दोनों मे से किसी पर भी तरस नहीं आ रहा था।

ऑपरेशन की फीस जमा हुई। भाभी का ऑपरेशन सफल हो गया। अनिल बाबू ने अपनी जी जान लगा कर फिर से कारोबार फिर से उठा लिया। पर अनिल बाबू को कुछ अच्छा नहीं लग रहा था हीरो के बिना। वो रोज़ कुछ पैसे जूटाकर एक बक्से मे रखते जाते। कलेंडर पर निशान चढ़ते गए और साथ ही बक्सो मे रुपये जमते गए। कुछ यही चार-पाँच महीने बीते और वो दिन आ गया।

अनिल अग्रवाल चेहरे पर चमक और हाथो मे रुपये लिए चल पड़े साहूकार के घर की ओर। मन मे तरह-तरह के विचारो को थामे। बड़े प्रफुल्लित लग रहे थे, आज मालूम हो रहा था अनिल फिर से जी उठे है। पर पहुँचते उन्होने पाया की साहूकार के यहाँ ताला पड़ा है। थोड़ी जांच पड़ताल पर पता चला कि वो लडेरा गए हैं, शायद किसी ऊंट महोत्सव मे। अनिल बाबू इतना सुनते ही भागे भागे पहुंचे वहाँ।

ऊंट महोत्सव इनता भरा-भरा सा था की आदमी पहचान पाना मुश्किल सा हो रहा था। काफी खोज के बाद वो थक से गए। तभी ऊंट प्रतियोगिता की घोषणा ने उनकी तत्परता और बढ़ा दी। काफी-सारे ऊँटो के बीच खड़ा हीरो को देख उनसे रहा ना गया। वो अंदर जाकर उससे मिलने की कोशिश करने लगे। पर किनारे पर लगे तारों और काफी सख्त सुरक्षा ने उन्हे वहाँ जाने से पहले ही रोक दिया।

रेस शुरू हो चुका था। सभी अपने ऊंट लेकर दौड़ रहे थे। हीरो पर सवार चालक उसे बुरी तरह पीट-पीट कर दौड़ाए जा रहे थे। चालक की हर वार से अनिल बाबू का सीना छलनी हो जाता था। रेस खत्म हुआ और हीरो विजयी घोषित हुआ, पर अनिल बाबू की खुशी की वजह उसकी जीत ना थी बल्कि सिर्फ हीरो था। हीरो गले मे विजयी तमगा लिए सुनील सिंह राजपुत के साथ आ रहा था कि अनिल बाबू ने उन्हे रोक लिया। सुनील को शायद इस बात का अंदेशा नहीं था कि वो इतनी जल्दी हीरो को लेने आ जाएगा। फिर भी सुनील ने एक और चाल चली, “अनिल एक बात बोलू तुम मुझसे जीतने चाहे पैसे ले लो पर ये ऊंट हमको दे दो”

अबकी बार अनिल बाबू रुकने वाले नहीं थे। सीधा बोल दिया “आप हमको वो कीमत नहीं दे पाएंगे जिससे एक दोस्त को खरीदा जा सके साहूकार बाबू, हर वस्तु पैसों से नहीं खरीदा जा सकता। “आप अपने पैसे रखिए और हमारा दोस्त हीरो मुझे वापस कर दीजिये। सुनील को अब ऊंट की हैसियत का अंदाज़ा अनिल के जीवन के परिपेक्ष मे हो चुका था। उसने लगाम अनिल को पकड़ा दी और कहा हाँ अनिल तुम्हारा दोस्त सच मे हीरो ही है। अनिल बाबू ने लगाम तुरंत निकाल हीरो से लिपट के रोने लगा।

हीरो ने अपनी गर्दन हल्की सी झुकाई और अनिल के कान मे कुछ फुसफुसाया। अबकी बार वो बात केवल अनिल ही नहीं बल्कि सबकी समझ मे आ चुकी थी।

- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)

रविवार, 13 नवंबर 2016

Breeze

Memories laden wind usually prevails when my feet cross the old bridge.

An aromatic bliss hover throughout the region. Something want to nudge my soul.
Do braided tighten with colourful ribbons. A sweet charming smiles scattering few yellowish flavours to sunflower, the envy of her.

Hands Full of Cherished Balloon getting higher with the lovedrogen gas filled up.
Something unnatural occurs when i cross the old bridge.

- Misra Raahul

दोष

पकड़ कर तलवार तू चल कभी ए यार,
जीनीे है तंग गलियां कोई दोष न दे बार।

गर फलसफा होगा यही भंग करना है तुझे,
हाँ मोड़ दे तू अब लकीरें दोष न दे यार।

ज़िन्दगी हैं जब चलेगी चलती ही जाएगी,
खेंच कर दे पतवार कोई दोष न दे यार।

जिल्लतों की पर्ची फाड़ कर दे फेक तू,
सामने बैठा मुक़द्दर है अब दोष न दे यार।

- मिश्रा राहुल (ब्लोगिस्ट एवं लेखक)
(06-अक्टूबर-2016)(डायरी के पन्नो से)

इश्क़ का बुखार

इश्क़
के बुखार
मिलता
कहाँ है इतवार,


कोई
आये लेता जाए
यादों के
थर्मामीटर* की रीडिंग*।

*thermometer
*reading

- राहुल

लप्रेक १९

अंजू नें बालों की क्लिप उतार कर उन्हें हवाओं में तैरने के लिए छोड़ दिया। इधर सुनील की पल्सर हवाओं से बातें कर रही थी वही बातें अंजू की जुल्फें सुलझाते कानों में समां रही थी।

तभी अंजू नें सवाल किया सबसे कीमती चीज क्या है तुम्हारी सुनील बोल पड़ा बातें। इधर अंजू नें ठहाके मार कर कहा, हाँ वो न बंद हो सकती और न पुरानी।

इतने देर में दोनों अपने पसंदीदा रेस्टोरेंट की मनपसंद सीट पर जा बैठे। आर्डर हो गया और शुरू हुआ बातों का सिलसिला वो भी क्यों न हो आखिर पूरे चार साल बाद जो दोनों मिले थे।

दरअसल अंजू बड़ी अड़ियल लड़की थी कॉलेज की और सुनील बड़ा सीधा सा लड़का। दोनों की केमिस्ट्री न कॉलेज को समझ आई, ना उन्ही दोनों को।

अंजू के अंदर लड़कों के गुण थे। देर रात तक डांस बार, घूमना फिरना, बिंदास रहना। वहीँ सुनील बड़ा शांत, गंभीर और मझा हुआ बंदा। कोई मेल नहीं था दोनों में लेकिन साथ थे दोनों। प्यार है ना हो जाता पूछता नहीं।

बातों बातों में दोनों की शाम हो ही जाती। आज भी वही बातें जिनको अगर टेप-रिकॉर्डर चलाके भी सुनो तो हू-ब-हू एक मिलेंगी।

कॉफ़ी हर बार जैसी ठंडी हो गयी। टोस्ट कड़े हो गए। टेबल पर बिल आ गया और सुनील बस एक टक अंजू की आँखों में झांकता रह गया।

"सुनील वेटर बिल लेके आया है कहाँ खोये हो।" अंजू नें पूछा

"ओह हाँ बिल अंजू तुझमे इतना घुल जाता ना और कोई सूझता नहीं मुझे।" सुनील नें कहा

सुनील नें जेब में हाथ डाला। और मिला 500 रुपए का नोट। जिसे देखकर वेटर नें नाक-भंव सिकोड़ लिए। किसी तरह समझ-बुझाकर अंजू नें वेटर को हटाया।

"सुनील आज तो मैंने भी जल्दबाजी में अपना पर्स भूल आई। देखो कुछ और है क्या तुम्हारे पर्स में।" अंजू नें मुस्कुराते कहा

"हाँ है पर मैं वो दे नहीं सकता।" सुनील नें अपना फैसला सुना दिया

"पर ऐसा क्या है, जो नहीं दे सकता" अंजू नें उत्सुकता से पूछा

"यार ये वो चार सौ रुपए है जो तुमने मुझे अपना बिज़नस शुरू करने को दिया था। कितनी दिक्कतें आई मैंने इसे खर्च नहीं किया। और मैं इसे इस्तेमाल नहीं कर सकता बस" सुनील नें सफाई दी

"लेकिन पेमेंट कैसे" अंजू इतना बोल पाई की उसने रोते हुए सुनील को गले से लगा लिया।

इधर मंजर रूमानी होता जा रहा था। तभी बैकग्राउंड से आवाज आई। टेबल नंबर 9 का पेमेंट हो गया है।

दोनों चौंककर मेनेजर को देखने लगे।
हाँ भाई आज आपकी 25वीं डेट है, तो मेरी रेस्टोरेंट नें आपकी ट्रीट को फ्रीबी कर दिया।

दोनों की आँखें मेनेजर को थैंक्यू कर रही थी। और मेनेजर साहब नें आँखों में ही थैंक्यू कबूल भी कर लिया।

- मिश्रा राहुल (डायरी के पन्नो से)
(ब्लॉगिस्ट एवं लेखक) (13-नवम्बर-2016)

लप्रेक १८

काफी देर से बेंच पर बैठे कबीर की आँखों को किसी ने अचानक से आकर अपनी नर्म हथेलियों से ढंक लिया।

गिन्नी फिर तू मुझे पहचानने को कहेगी और मेरा जवाब भी यही रहेगा, "सोते , जागते, उठते, बैठते गिन्नी गिन्नी रहती इर्द-गिर्द।
गिन्नी के हाथ को हटाते हुए कबीर हिचकते हुए बोल पड़ा।


गिन्नी भी मुस्कुरा कर अपनी तारीफों को कबूल किया।

"देख इतनी देर में मुझे हिचकियाँ भी आने लगी", कबीर ने बोला।

हिचकी वाली बात और गिन्नी नें फटाक से जवाब दिया,
"कबीर सांस रोको"
फिर अपनी उँगलियों को दूसरी उँगलियों के सहारे गिनना शुरू किया।
एक, दो, तीन, चार और अब पूरे पांच। हाँ सांस ले सकते हो।

वाह गिन्नी सच-मुच हिचकी छुमंतर। ये तरीका कहाँ से आया, कबीर ने उत्सुकता से पूछा।

गिन्नी नें जवाब में कहा, "तुम्हारी हिचकियों को भी अब पता चल गया मैं आ गयी हूँ और क्या। इतना भी समझ नहीं आता तुम्हे।"

फिर बातें बढ़ते चली गयी कभी ना रुकने वाली बातें।

- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)

लप्रेक १७

श्रुति नें जैसे ही बैग में अपनी साइंस की नोटबुक निकलने को हाथ डाला। उसके हाथों में सफ़ेद बैकग्राउंड पर उभरा गुलाब से लिपटा एक शानदार कार्ड आया। ऊपर की जिल्द ही इतनी खूबसूरत थी की मानो काफी कुछ खुद ही बयाँ कर रही हो।

श्रुति नें कार्ड खोल दिया। उलटे हाथों से लिखे गए उस कार्ड में हैंडराइटिंग जानबूझकर बिगाड़ी गयी थी।


श्रुति से रहा न गया, उसकी निगाहें क्लासरूम के आठों कोनो को एक दफे निहार गयी। पूरी क्लास कहीं ना कहीं व्यस्त थी, वहीँ आठों कोनो में से दो आँखें चार हो गयी।

साथ ही एक मुस्कान नें कार्ड पर अपनी दस्तखत कर, प्यार की बयार पर मुहर लगा दी।

- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवम् लेखक)

लप्रेक 1६

तेज़ वाईफ़ाई और कड़वी कॉफी के बीच अमितेश मानो खो गया। वो जिस टेबल पर बैठा था। उसके ठीक सामने दीवाल पर टंगी पेंटिंग अजीब सा अपनापन झलका, उसे खीचने का प्रयास कर रही थी। पर उसकी कूँची और कैनवास उसकी उंगलियां छोड़ने की इज़ाज़त देने को तैयार ना थी।

पेंटिंग भी अजीब सी उलझी उलझी।मानो किसी डिम लाइट की फोटोग्राफी थी बस जो दो लोगों की छाया नज़र आ रही। उसमें दो प्यालों के बीच में कुछ पुराने फ़टे हुए कूपन, एक साइड से कैंची से कतरे हुए। कुछ सेलफोन टेबल सी चिपका कर रखे हुए।

तेज़ वाईफ़ाई में उसका इंस्टाग्राम बड़े तत्परता से कुछ साइड के कलाकारों को आउटफोकस कर रहा था।
अमितेश शायद कुछ खोज रहा था। इसी तल्लीनता में उसने चार प्याले खाली कर दिए। तभी उसकी सफ़ेद स्क्रीन अचानक रंगबिरंगी हो गयी।

एक रिंग बजी और फ़ोन उठ गया।
एक सांस में सारी कॉफी बातों से खाली कर दी।

पीछे से मेनेजर साहब की आवाज़ आई मुझे बुला रहे थे मेरे बिना पूछे बोल पड़े। वो पागल है साहब। रोज़ आता है कुछ प्याले गतकता फिर कुछ उलटे सीधे पेंटिंग बनाता कुछ फ्रेम कर मुझे दे जाता। मैं भी उसकी बात टाल नहीं पाता। मुझे सच्चे प्यार-मोहब्बत में कोई दिलचस्पी नहीं, पर अमितेश को देखता हूँ तो उसकी पेंटिंग से अंजना मैडम का चेहरा खुद बना लेता हूँ।

क्या यह प्यार नहीं? मेनेजर साहब के प्रश्न नें मुझे तीन सौ साथ डिग्री घुमा दिया और दीवाल पर लगी पेंटिंग ने मुझे अमितेश-अंजना की यादों से।

- मिश्रा राहुल (ब्लोगिस्ट एवं लेखक)
(२१-अगस्त-२०१६) (डायरी के पन्नों से)

लप्रेक १५


इंजन की सीटी नें अचानक विनय को जगा दिया। सामने बोर्ड पर बड़े लाल अक्षरों में लिखा था " विश्व के सबसे लंबे प्लेटफॉर्म पर आपका स्वागत है"। विनय की ख़ुशी का ठिकाना ना था कलाई घुमा के देखा सुबह के नौ बजे थे। वो खुश इसलिए नहीं था कि वह अपने गोरखपुर को विश्व के नक़्शे पर गौरवान्वित देख रहा था। बल्कि उसकी भीनी मुस्कान के पीछे उस बोर्ड का नहीं बल्कि उसके पहले गड़े उस लोहे के बेंच का खास योगदान था। जैसे ही विनय उस बेंच पर बैठ मानो पूरा स्टेशन आठ बरस पीछे चला गया हो।

विनय, उसका पसंदीदा स्काई बैग्स और साथ में गुलाबी सिक्के की इयरिंग्स कानो में फंसाए, सफ़ेद बैकग्राउंड पर ग्राफिटी वाली टीशर्ट पर नीली शार्ट जीन्स पहनी, चपड़ चपड़ बोलने वाली संजना।

तस्वीरें इतनी क्लियर थी की मानो आवाज़ बहार आ रही हो। पर कुछ ऐसा खटका की सब गयाब हो गया। पीछे के मनोज वेंडर से छोटा सा बच्चा आकर बोला विनय सर। आपका एक गिफ्ट पिछले आठ साल से मेरे दूकान पर पड़ा है। उस दिन मैडम भूल से छोड़ गयी थी।

संजना का नाम सुनते ही विनय को अजीब सी बेचैनी हो उठी। मानो वो वो किसी सोने में था पर उठना ना चाह रहा हो।

विनय नें जल्द ही रेपर खोल अंदर थी "द नोटबुक"। विनय को समझ नहीं आया इस नावेल में ऐसा क्या जो संजना बोलना चाह रही हो। बल्कि संजना को अच्छे से पता विनय जेएनयू में अंग्रेजी से पीएचडी करने गया था। साथ ही उसका शौक था अंग्रेजी में। इन साब सवालों का जवाब खोजते बुनते उसनें किताब को तेज़ी से पढना शुरू किया।

उत्सुकता में 224 पन्ने की नावेल को एक घंटे में गटक गया। पर कुछ जवाब मिलता ना देख उसनें किताब को बगल लगा दिया। किताब के रेपर पर कुछ पेंसिल से लिखा था।

"जिसकी ज़िन्दगी में अरमान बड़े होते वो अक्सर मंजिलों तलाश कर लेता है।"

संजना दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर यूनिवर्सिटी से हिंदी में पीएचडी कर रही थी। अब प्यार में हिंदी-इंग्लिस का कॉम्बो अजीब था।
जितना संजना को अंग्रेजी से चिढ़ थी उतनी ही विनय को हिंदी से। फिर भी विनय नें लिखी गुत्थी को हल करने की सोची।

विनय बाहर निकला तो शहर को देखकर चौक गया शहर काफी कुछ बदल चूका था। इन आठ सालों मैं गोरखपुर के तस्वीर बदल गयी थी।
गुत्थी के अनुसार संजना को ढूढ़ना शुरू किया। अरमान, मन्जिल और
ज़िन्दगी से उसनें अंदाज़ा लगाया मोहतरमा नें फ्लैट ले लिया है। फिर क्या था विनय चल पड़ा तारामंडल की ओर। अब बारी थी अरमान ढूढ़ने की उसनें तारामंडल में अरमान नाम के फ्लैट खंगलनें शुरू किये। वो भी जल्द ही मिल गया अरमान रेजीडेंसी। और सामने खड़ी मिली संजना।
संजना को देखकर विनय उससे लिपट गया।

और बोला तुमको पता था मैं आने वाला हूँ। और ये गिफ्ट आज ही रखवाया ना। सब जानता हूँ मैं।

संजना नें मुस्कुराया, " हाँ। और मैं ये जानती थी, कि तुम मेरी पहेली झट से हल कर दोगे।

फिर सारी बातें होती रही। और कब इंजन की तेज़ हॉर्न नें विनय को मीठे सपने से उठा दिया पता ही न चला। उसकी कलाई में शाम के साढ़े छह बज रहे थे। फिर ट्रेन मिस हो गयी।

कुछ लोगो से जानकारी की तो पता चला पिछले आठ सालों से विनय रोज़ सुबह खड़े किसी भी इंजन में आकर सोता है फिर उठकर बाहर बेंच पर बैठता है। फिर कोई किताब उठता और शाम हो जाता।

कोई इतना भी पागल होता किसी के प्यार में।

- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवम् लेखक)
(०६-अगस्त-२०१६)

लप्रेक 14

साक्षी के गोरे से हाथों को अपनी बड़ी हथेली में बिछाकर, संजय लकीरों से लुका छिपी खेल रहा था।
कुछ देर चुप रहा। फिर अचानक से बोल पड़ा। अपनी तेरी जोड़ी सुपरहिट है। हथेलियों के मकड़जाल में से एक धागे को छूकर उसने साबित भी किया।


साक्षी चुपचाप हंसनें लगी और बात बड़े शायराना लहजे में समेट दिया।
"हर रोज़ खोजते हो मेरी हाथो की लकीरों में,
ऐसे छेड़ने के अंदाज़ में भला कौन न फ़िदा हो।"

फिर नज़रों की गुफतगू नें पूरा मंज़र रूमानी कर दिया।

- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवम् लेखक)

गुरुवार, 8 सितंबर 2016

बेरुखी

इतनी भी बेरुखी से देखा ना करो,
मैं रोता हूँ शौक से पूछा ना करो।

थोड़ी सी गुजाइश मुझसे भी रखो,
मैं खुदा का बंदा हूँ खुदा ना करो।

लकीरें उभरेंगी कुछ और कल तक,
आज को देख कल तौला ना करो।

काफिर नहीं हूँ जो गुजरता जाऊँ,
हर बार बढ़ने को बोला ना करो।

सुलझाने में और उलझ गयी तू,
गांठ चढ़ने दो उसे खोला ना करो।


 ©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल

मंगलवार, 31 मई 2016

लप्रेक १३



जानती हो श्रेया हेडफोन का बायाँ शिरा तुम्हारी कानों में क्यों लगाता ? गानों की इमोशनल बातें बाए कानो तक जल्दी पहुँचती।

"अच्छा जनाब, फिर दाहिने कानो का कॉन्सेप्ट समझाइये" श्रेया नें पूछा

मेरा हेडफोन का दाहिना शिरा खराब है। गानों की लब्ज़ों को तुम्हारे होंठों से टटोलकर, तुममें खो जाता हूँ।

फिर तीन शब्दों को चार शब्दों में बनाकर बातें ख़त्म हो गयी और गानों की धुन में माहौल सराबोर हो गया।

लप्रेक १२

एनफील्ड की पिछली सीट पर बैठी दिव्या पिछले दस मिनट से बोले जा रही थी। कुछ रेस्पॉन्स ना आता देख उसनें खीजते हुए कहा, "या तो अपनी ये फटफटी बेंच दो या मेरे साथ पैदल चला करो। दोहराने में फिर से वही इमोशन नहीं ला पाती मैं।"

रिशब नें मुस्कुराते कहा, "याद है इसी एनफील्ड पर तुम्हे सबसे पहले बेतियाहाता की चमचमाती सड़कों पर घुमाया था। फिर भी लाख बात की एक बात होती तुम्हारी।

अगले दिन रिशब नें पहली बार दिव्या के घर पहुचकर कॉल किया।
रिशब नें कहा, "हेल्लो दिव्या बहार आओ मैं आ गया"।
दिव्या बाहर आते ही, दंग रह गयी।
सामने खड़ी थी सफ़ेद चमचमाती होंडा एक्टिवा।
रिशब नें मुस्कुराते कहा,"एनफील्ड थी बस दिव्या थोड़े थी।"

लप्रेक ११


धूधली सी शाम में श्याम के कंधों पर सर रखकर बैठी थी। काफी देर तक की खामोशी को चीरते हुए। नीतू नें आसमान में आकृति दिखाते हुए कहा चलो न उस बादल के पीछे चले। एक बादल से दूसरे पर आइस-पाइस खेलेंगे। 


तुम सूरज ओढ़ लेना मैं चाँद पॉकेट में छुपा लूँगी। फिर अदला बदली करेंगे दोनों का। ले जाऊँगी बहुत दूर मेरी नानी के गाँव में ये चाँद गड्ढे में छुपा दूँगी। फिर चाँद दिन पूरी करने ना आएगा। और मैं तुम्हारे साथ यहीं पूरे एक दिन एक सौ बरस जैसे गुज़ार दूँगी।

- मिश्रा राहुल

लप्रेक १०



रेनॉल्ड्स 045 अब तो सफ़ेद से पीला पड़ गया हैं। करन नें उसकी नीली कैप भी बड़ी सम्हाल के रखी। पिछले बार आशीष से उसकी कट्टी भी इसी बात पर हुई थी। उसनें एक दिन के लिए पेन उधार मांगी थी। 


करन से दिल पे पत्थर रखकर उसे एक दिन खातिर अपना रेनॉल्ड्स 045 दिया था।
 

आजकल दूकान दूकान ढूंढता है, रिफिल मिलती नहीं। लोग मजाक भी
उड़ाते अमन बदल दे अपनी राम प्यारी।
 

अमन भी पलटवार करता। गिफ्ट कभी पुराना होता है क्या। कभी प्यार करोगे समझ जाओगे हुजूर।
 

- मिश्रा राहुल

लप्रेक ९



जैसे ही कार का दरवाजा बंद होता। अंगूठे और दोनों उंगलियां सीधा म्यूजिक की वॉल्यूम नॉब ही घुमाती।

आवाज़ धीरे धीरे तेज़ होती की कैसेट को फ़ास्ट फारवर्ड लगा दिया जाता। अक्सर दोनों में इसी को लेकर लड़ाई होती थी कि उसने जो पसंद के गाने पर्ची में नोट करवाये थे वो क्यों नहीं भरवाये हमने।

आजकल ड्राइव करता हूँ अकेले, बगल की सीट पर लोग बदलते जाते। आजकल साइड ए ही लगा रहता। न कोई छेड़ता ना कोई पलटता। बजता रहता फिर खुद ही बंद हो जाता या शायद मैं ख्वाब से वापस लौट आता।

रविवार, 27 मार्च 2016

ख्वाब


रात तकिये नीचे सेलफोन में उँगलियाँ स्क्रॉल करते कब सो गया पता नहीं चला। आजकल बहुत नीचे चले गए हैं कुछ फोटोग्राफ्स, जो कभी मोबाइल की पहली ग्रिड में अपना सीना तानकर खड़े रहते थे।


सपने सच बोलते वहाँ ज़ोर कहाँ चलता किसी का। कल आई थी चुप-चाप थी गुमसुम थी उलझी थी बिखरी थी लटें। ज़ुल्फों को उँगलियों से कंघा भी किया उसने देखकर मुस्कुराया। बोला नहीं सुना है सपनों में बोला नहीं करते शोर से टूट जाता बहुत कुछ। कुछ पल के लिए ठहर गया था समा। 


बस समझो मज़ा आ गया था।

- मिश्रा राहुल | खामोशियाँ-2016
(डायरी के पन्नो से) (24-02-2016)

आओ भी



जान ली हो तो जान अब आओ भी,
लेके जान तुम ए जान ना जाओ भी।

तमन्ना है तेरी बिखरे जुल्फे सुलझाऊँ,
हौले से उन्हें कान के पार लगाओ भी।

लुका छिपी खेलता है देख ये चाँद मेरा,
आज अमावस में भी टिप लगाओ भी।

ख्वाइश है सर रख लेटा रहूँ तेरी गोद में,
हाथ बढाकर ज़रा मेरे बाल सहलाओ भी।

- मिश्रा राहुल | ©खामोशियाँ

बुधवार, 6 जनवरी 2016

प्रेम में इस्तेहार



प्रेम में इस्तेहार बन बैठे हैं हम,
भोर के अखबार बन बैठे है हम।

सब पढ़ते चाय की चुस्की लेकर,
हसरतों के औज़ार बन बैठे हैं हम।

सुर्खियां जलकर ख़ाक हो गयी,
सोच के गुलज़ार बन बैठे है हम।

बदलता जाता नक़ाब हर घड़ी,
काठ के पतवार बन बैठे हैं हम।

चित्रकारी Vs कलमकारी।



एक
जैसी लगती
तेरी चित्रकारी
और मेरी
कलमकारी।

लिखता
हूं तो एहसास
कैनवास हो जाता।
अल्फ़ाज़
मेरी कूंची बन जाती।

क्यूँ ना
कभी ऐसा हो,
तेरी स्केचिंग
के कैनवास पर,

मैं शब्दों के
गौहर सजा दूं।
और तू मेरी
ग़ज़ल पर
अपने रंगो का
टीका कर दे।

- मिश्रा राहुल

रविवार, 3 जनवरी 2016

कार्बन


एक
कार्बन रखकर

एहसासों को
गाढ़ा कर,

कुछ
सफ़ेद पन्ने पे
उभरेंगी तारीखें।

नज़र
का टीका
करके गोला मार देना।
आजकल
जमाना खराब है।


- मिश्रा राहुल