भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
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प्रेम में इश्तेहार बन बैठे हैं हम, भोर के अखबार बन बैठे है हम। सब पढ़ते चाय की चुस्की लेकर, हसरतों के औज़ार बन बैठे हैं हम। कितनी सुर्खिया...
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 07-01-2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2214 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
सुन्दर अभिव्यक्ति ....
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