भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
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शनिवार, 11 मई 2013
गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013
अकेली सांझ...!!!
हर सांझ की तन्हाई जाने कितने सवाल अपने अन्दर बसाए रहती....थोड़ी दूर चलते हम...और शायद गली ही रूठ जाती हमसे...रास्ते ही ना होते आगे के...!!!बड़ी अकेली बैठी शाम का दस्तूर हो गया ,
नजरें थी पास पर वो दिल से दूर हो गया .. !!
किसी चाह्दिवारी में सजे झूमरो जैसे,
वो चाँद भी हमारी पहुच से दूर हो गया .. !!
कितने ग़ज़ल दबे उन पीले किताबों में,
गुनाह किया कितने और वो बेकसूर हो गया .. !!
तनहाइयों ने छेड़ दी वो कशिश ज़िन्दगी में ,
मोहरा आएने में झाकने को मजबूर हो गया .. !!
एक अजब सी सवाल आँख मिजाते पूछती सुबह,
तेरा यार जो पास था वो कैसे दूर हो गया .. !!
रविवार, 3 फ़रवरी 2013
एक बुजुर्ग आइना....
पुराने स्टोर रूम में बिफरा पड़ा था...
एक बुजुर्ग आइना...
मिट्टी सनी दाहिने हाथ की बुसट में...!!
बड़ी नर्म कलाइयों से झाड़ रहा...
पानी गिर रहा अन्दर ही मेरी अक्स से...
रो तो न रहा मैं...बाहर से...!!
साफ़ कर दिया...कुंडी में फंसे कपडे से..
उठा लाया उसे एक झूठ तामिल कराने...!!
रोज झांकता उसमे कितनी खुदगर्जी से..
पर देख बुढ़ापे में भी कितना
साफ़ देखता..वो बुजुर्ग आइना...!!
शनिवार, 27 अक्टूबर 2012
आईना...!!!
इन आएनो में अब वो कुर्बतें भी नहीं,
अक्स झांकता हैं बहार पर दिखता ही नहीं .. !!
कुर्शिया भी तलाशती बैठने किसी को,
मेहमानों में कभी वो नजर आता ही नहीं .. !!
पलटते चले गए पन्ने अखबार के,
इश्तिहार बनी ज़िन्दगी से अब वास्ता ही नहीं .. !!
धुवे लादे हुवे अब्रा पसरे फलक पर,
परिंदों को कोई रास्ता दिखलाता ही नहीं .. !!
चाहते भटक जाए इन घने जंगलों में,
पर कोई शाम को वहा जाने देता ही नहीं...!!!
अक्स झांकता हैं बहार पर दिखता ही नहीं .. !!
कुर्शिया भी तलाशती बैठने किसी को,
मेहमानों में कभी वो नजर आता ही नहीं .. !!
पलटते चले गए पन्ने अखबार के,
इश्तिहार बनी ज़िन्दगी से अब वास्ता ही नहीं .. !!
धुवे लादे हुवे अब्रा पसरे फलक पर,
परिंदों को कोई रास्ता दिखलाता ही नहीं .. !!
चाहते भटक जाए इन घने जंगलों में,
पर कोई शाम को वहा जाने देता ही नहीं...!!!
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