भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
शनिवार, 17 जनवरी 2015
ज़िंदगी की नाव
चलें आज
ज़िंदगी के भंवर में
यादों की नाव उतारे।
उदास
लम्हों को
बीच से फ़ोल्ड* करे।
टूटे
ख्वाबों को खुद
अटैच* कर पास लाए।
अपने
वादों को
ऊपर खुद चढ़ा आए।
बस
वादों को
लम्हों में
अल्टी-पलटी करे।
ज़रा सा
खोल दें बाहें
तैयार खड़ी आपकी नाव।
चलें आज
ज़िंदगी के भंवर में
यादों की नाव उतारे।
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ज़िंदगी की नाव | मिश्रा राहुल
©खामोशियाँ-२०१५ | १७-जनवरी-२०१५
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