भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
बुधवार, 8 अप्रैल 2015
ख्वाबों का घोसला
अकसर
दिल के
मुंड़ेर पर बैठती,
एक प्यारी सी गौंरैया।
चुन-चुनकर
चोंच से लम्हे,
बनाया करती।
छोटे-छोटे
ख्वाबों का घोसला।
खुशियों
को इर्द-गिर्द
बसाए निहारती।
पर अचानक
आ गया
गमों का तूफान।
बस
बिखर गया
उम्मीदों से सजाया
ख्वाहिशों का घोसला।
दिल
की गौरैया भी
गिर पड़ी
सूखी सतह पर।
तड़प रही
उसकी
आँखों के आगे।
उड़कर
जा रहे
यादों के फटे पुर्जे।
सुबह
सारे तिनके
इकट्ठा थे।
हवाओं ने
इतना कर दिया।
गौरैया
खिल पड़ी,
देखते ही देखते।
फिर बन गया
ख्वाबों का घोसला।
_____________
ख्वाबों का घोसला
©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल
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