भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
बुधवार, 4 मार्च 2015
ज़िंदगी की सिग्नल
ज़िंदगी
भी कितने
सिग्नल क्रॉस
करती आगे ही बढ़ती।
लाल देख
रुकती नहीं।
हरे पर जरा
सहम सी जाती।
यादों
की चालान
काटे भी गर कोई।
तो उम्मीदों
की रिश्वत थमा
आगे बढ़ती जाती।
ये ज़िंदगी
भी कितने
सिग्नल क्रॉस
करती आगे ही बढ़ती।
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ज़िंदगी की सिग्नल
©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से) (०५-मार्च-२०१५)
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जिन्दगी उसी का नाम है जो बढती ही जाती है..
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