भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
मंगलवार, 10 मार्च 2015
इश्क़-ए-गुब्बारे
दिल जिसको पुकारे उन्हे बुला लीजिये,
यादों के झूलों को फिरसे झुला दीजिये।
होंठों से बयान ना होते हैं कुछ फसाने,
आँखों से कुछ तीर फिरसे चला दीजिये।
हवा निकाल गयी रूठना-मनाना खेलते,
इश्क़-ए-गुब्बारे को फिरसे फुला दीजिये।
शह-मात कहाँ होती इस गज़ब खेल में,
वजीर को असलियत फिरसे बता दीजिये।
अकेले खोजोगे तो मिलेगा जरूर ही कोई,
पुराने दिये में उम्मीद फिरसे जला दीजिये।
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" इश्क़-ए-गुब्बारे "
©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से)(११-मार्च-२०१५)
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