भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
शनिवार, 7 मार्च 2015
नाराज़ चाँद
खिड़की
पर चाँद
अटक सा गया है।
हिलता नहीं
डुलता नहीं
गुस्से से धुआँ हैं।
मुंह फुलाए
नज़र घुमाए
बैठा है उदास सा।
कुछ
कहा-सुनी
हो गयी सितारों से।
बुझ गए
फ़लक के झालर
लापता है मनाने वाले।
कब
तक मानेगा
कब
तक जागेगा।
कुछ पता नहीं,
आज रात
देर तक होगी शायद।
आज बात
देर तक होगी शायद।
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©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से)(७-मार्च-२०१५)
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