प्रेम धुरी है। जिसके इर्दगिर्द जीवन पर्यन्त लगाव व उम्मीद घूमघूमकर सुकून का एहसास कराती।
लगाव और उम्मीद का हावी होने से कभी कभी दोनों प्रेम धुरी से पृथक होकर बाह्य बल के सामावेश में आ जाते।
यही से विकार शुरु हो जाता। एहसास का दर्पण धुधलाने सा लगता। रिश्ते भी मृग मरीचिका तलाशते घूमते पर कस्तूरी तो स्वयं उसी लगाव-उम्मीद में है। जरूरत है बस एक तराजू की जो दोनो के विस्थापन को सुनियोजित करता रहे।
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प्रेम कस्तूरी | मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नों से)(२५-मार्च-२०१५)
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