बड़ी खामोसी से बैठे हैं फूलो के धरौदे....जरा पूछ बतलाएंगे सारी गुस्ताखिया....!!!______ प्यासे गले में उतर आती....देख कैसे यादों की हिचकियाँ....!!!______ पलके उचका के हम भी सोते हैं ए राहुल....पर ख्वाब हैं की उन पर अटकते ही नहीं....!!!______ आईने में आइना तलाशने चला था मैं देख....कैसे पहुचता मंजिल तो दूसरी कायनात में मिलती....!!! धुप में धुएं की धुधली महक को महसूस करते हुए....जाने कितने काएनात में छान के लौट चूका हूँ मैं....!!!______बर्बादी का जखीरा पाले बैठी हैं मेरी जिंदगी....अब और कितना बर्बाद कर पाएगा तू बता मौला....!!!______ सितारे गर्दिशों में पनपे तो कुछ न होता दोस्त....कभी ये बात जाके अमावास के चाँद से पूछ लो....!!!______"

शुक्रवार, 27 मार्च 2015

प्रेम कस्तूरी


प्रेम...लगाव...उम्मीद...एहसास।
प्रेम धुरी है। जिसके इर्दगिर्द जीवन पर्यन्त लगाव व उम्मीद घूमघूमकर सुकून का एहसास कराती।
लगाव और उम्मीद का हावी होने से कभी कभी दोनों प्रेम धुरी से पृथक होकर बाह्य बल के सामावेश में आ जाते।
यही से विकार शुरु हो जाता। एहसास का दर्पण धुधलाने सा लगता। रिश्ते भी मृग मरीचिका तलाशते घूमते पर कस्तूरी तो स्वयं उसी लगाव-उम्मीद में है। जरूरत है बस एक तराजू की जो दोनो के विस्थापन को सुनियोजित करता रहे।
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प्रेम कस्तूरी | मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नों से)(२५-मार्च-२०१५)

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