भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
गुरुवार, 5 मार्च 2015
हसरतें
कुछ हसरतें पूरी हुई भी तो कीमत ले गयी,
सारे ज़िंदगी की कमाई थी मेहनत ले गयी।
बस कुछ मुट्ठी भर ही थे अपने भी सपने,
उन्हे देखने की उठाई थी हिम्मत ले गयी।
अपना कहने से भी डरने लगा हूँ मैं अब तो,
हमारी बरसों की बनाई थी हुकूमत ले गयी।
हाथों में संजोएँ रखा था दुवाएँ जिसके लिए,
पुरानी बस्ती की सजाई थी अमानत ले गयी।
कलम चले भी तो गुनाह सा लगता अब तो,
टूटे अल्फ़ाज की सताई थी किस्मत ले गयी।
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©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से) (६-मार्च-२०१५)
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आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 06 जनवरी 2018 को लिंक की जाएगी ....
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