जिंदगी मजिल का पता
पूछते बीत गयी...!!!
हर सुबह रोज निकलती
घर से ओढ ढांप के,
चौराहे पहुचते किसी
पनवडिये को देख गयी...!!!
चार तनहाइयों बाद
एक हलकी सी तबस्सुम,
ऐसी ही आवाज
मेरे कान को गूंज गयी...!!!
हमने भी देख लिया
खांचो में बसे अपने दर्द को,
बस एक बयार पुर्जा थामे
कई आसियाने लांघ गयी...!!!
इस बीच क्या हुआ
किसको बतालाये आलम,
जल्दी-जल्दी में देख
बिना चाय पीये निकल गयी...!!!
लौटकर हमने मेज पर
देखा तो पाया,
जाते जाते वो अपनी
यादें ही भूल गयी...!!!
हिम्मत नहीं कि
उड़ेल दे पिटारे उसके,
यूँ साँसे चौपत के
उसे बक्से में तह गयी...!!!
~खामोशियाँ©
~खामोशियाँ©
बहुत खूब..
जवाब देंहटाएंपांडे जी धन्यवाद
हटाएंसच दर्द के निशां रह ही जाते हैं ...
जवाब देंहटाएंकविता जी दर्द खाँचो मे बसे हैं...उसमे से निकालिए ...!!!
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