भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
सोमवार, 28 अप्रैल 2014
टुन-टूना
बंदर के हाथ उस्तरा सुने थे, अब इंसानी हाथ मे टुन-टूना सुन लीजिये....कुछ दृश्य शेयर कर रहे। आजकल ये वाकये साथ हो रहे तो सोचा सचेत तो करू या जान तो लूँ और भी किसी के साथ ऐसा हो रहा।
दृश्य 1:
ट्रेन की लाइट बंद हो चुकी है। यात्री सोने की तैयारी मे है। अचानक देखते ही देखते रेल का पूरा का पूरा डिब्बा रंगबिरंगी जगमगाती रोशनी से नहा गया। मानो चलता फिरता मल्टीप्लेक्स बन चुका हो। ढ्रेन-ढ़ीशुम, धूम-धड़ाम तरह तरह की आवाज़ें आणि शुरू। लग रहा कोई फिल्म चली रही। इत्तिफाक़ ये भी होता की आप वो फिल्म देख चुके है। अब आपका मस्तिस्क पूरी छवि तैयार कर रहा। देख आप रहे नहीं पर सुन रहे और स्क्रीनप्ले आपके आगे चल रहा। अब आप स्लीपर हो या एसी नींद आने से रही, माना करेंगे तो झगड़ा/मार-पीट गाली-गलौज।
दृश्य 2:
बस पूरी खचा-खच भरी है। हिलना-डुलना तो दूर ठीक से खड़े रहना तक दुर्लभ। दफ्तर से बॉस का फोन आए जा रहा, जाने कौन सी बात करनी। दो बार फोन उठाने की जहमत की पर नतीजा कुछ सुनाई नहीं पड़ा, तो फोन काटनी पड़ी। पता नहीं कौन सज्जन के 5.1 चैनल के बूफर मे "रात को होगा हंगामा" चीख रहा। दूसरे कोने से किसी और गाने की आवाज़ सुनाई दे रही। तीसरा और दिग्गज वो अपने क्षेत्रीय भाषा के गाने भी उसी अंदाज़ मे सुने जा रहा। आपका भले ही उस गाने से लेना देना नहीं जानना-समझना नहीं पर भाईसाहब, ये तो सार्वजनिक सवारी है। झेलना तो पड़ेगा ही और अब बॉस से डांट भी फिक्स मानिए। फोन जो काटा आपने उनका इगो हर्ट किया।
दृश्य 3:
हॉस्पिटल आए है। आपका दोस्त पलंग पर लेटा दर्द से कराह रहा। उसे ऑपरेशन थिएटर मे लिए जाने के लिए बस चंद मिनट बचे हैं। बेचारा कुछ दर्द/कुछ उत्तेजना/कुछ डर के कारण सहमा जा रहा। अस्पताल के गलियारे मे फैली नीरवता है, होना भी चाहिए। तभी एक जगह जगह से फटी जीन्स से एक दुबले पतले लड़के ने अपनी ईट के आकार की चमकती मोबाइल निकाली और लग गया निंजा सोल्जर मे। ये निंजा सोल्जर की पिंग-पुंग पूरे हॉस्पिटल के माहौल को बर्बाद कर रही। वो आवाज़ इतनी असहनीय है की मेरा दोस्त बार बार उठ बैठ जा रहा।
दृश्य 4:
मैं काफी देर से "होटल क्लार्क अवध" मे अंकिता का इंतज़ार कर रहा। घड़ी की सुई थम सी गयी है मानो आधे घंटे का समय बीत ही नहीं रहा। चलो किसी तरह मैंने उसे काट लिया। अंकिता आ गयी। अब मैं उससे मेनू ऑर्डर के लिए दे रहा तो वो अपने सेलफोन मे इतनी बीजी है कि जैसे मुझसे बस मिलने आई हो और दिमाग अपने फोन मे लगाकर रख लिया हो। खैर हमने ऑर्डर तो कर दिया अब भी वो खाये जा रही और मुझसे एक शब्द बात नहीं की। मेरा खाना खत्म हो गया और उसने शुरू तक नहीं किया। फिर अचानक से उठी फिर कह रही "सोर्री राहुल आज खाने का मूड नहीं"। मन किया खींच कर दो थप्पड़ लगाऊँ उसे। फिर भी मैंने मज़ाक के लहजे मे पूछा कौन है फोन पर। सर हिलाते वो चली गयी।
क्या मोबाइल का आविस्कार इसलिए किया गया था।
मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)
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nice n differnt :)
जवाब देंहटाएंfrustration ko bhi kya likha jaa skta hai .....dekh liya :)
सच्चाई है आरोही उसे लिखने में लेखक को असहज नहीं होना चाहिये।
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