भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
बुधवार, 2 अप्रैल 2014
ज़िंदगी की लज़ीज़ डिश
दो चम्मच बारीक
कटी हुई मुस्कुराहट मे,
हल्की सी मद्धिम आंच पर
कुछ दो चार दाने यादों के छिड़क ।
अंश्कों के तेल मे
छौका लगा उम्मीदों का...
बस कुछ देर ठहरने तो दे,
वादों के कलछुल को
अपनों से गले मिलने तो दे ।
अब ढाँप के रख,
धैर्य के बड़े प्लेट से,
ताकि निकल ना जाये
कुछ एहसास धुआँ बन के ।
सारे मौजूद रहेंगे,
तभी तो बनेगी
ज़िंदगी की लज़ीज़ डिश* ।
(डिश* Dish)
©खामोशियाँ-२०१४
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कल 04/04/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !