भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
रविवार, 13 अप्रैल 2014
कलम देखा है तुमने विरासत कहाँ देखी
कलम देखा है तुमने विरासत कहाँ देखी,
जख्म देखा है तुमने हिम्मत कहाँ देखी...!!!
बरस लगते मुखरे-मुकम्मल करने मे,
लफ्ज देखें है तुमने दिक्कत कहाँ देखी...!!!
जमाने भुला देते झूठी शान बिछाने मे,
भरम देखा है तुमने गफलत कहाँ देखी...!!!
हमने भी छोड़े है रईसी आशियाने तेरे,
रकम देखी है तुमने इज्ज़त कहाँ देखी...!!!
एक वजह खातिर ऐसे कैसे रूठ चली है...
कसम देखी है तुमने चाहत कहाँ देखी...!!!
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
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आपकी लिखी रचना मंगलवार 15 अप्रेल 2014 को लिंक की जाएगी...............
जवाब देंहटाएंhttp://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
धन्यवाद यशोदा जी।
हटाएंkya bat hai ..bahut sundar ......
जवाब देंहटाएंस्वागत है हामरे खामोशियाँ के पटल पर।
हटाएंशब्दों के जाल मे क्या खूब पिरोया है झलकियों को...आपकी यह रचना काबिलेतारीफ |
जवाब देंहटाएंसंजय जी शब्दों का जाल ही तो मकड़जाल है जिसमे लोग अक्सर फंस जाते।
हटाएंzakhm dekha hai tumne himmat kaha dekhi.....waah
जवाब देंहटाएंहाँ दीदी जख्म देखा है तुमने हिम्मत कहाँ देखी। हिम्मत देखता ही कौन है उसकी लोग तो बस ज़ख्मो पर तरस खाते कौन हर लेता दूसरों के कष्ट लोग तो बस सांत्वना दे जाते।
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