भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
बुधवार, 9 अप्रैल 2014
अखबार
खूनी धब्बे सानते है अखबार रोज़,
खुदा छुपके रोता है लाचार रोज़...!!!
पन्ने पलटने का मन ना होता,
बनकर टूट जाते है विचार रोज़...!!!
सड़ते घावो को ध्यान कौन देता,
मायूसी से झाँकता है उपचार रोज़....!!!
शकुनि के पासों मे उलझ ही जाता,
दुर्योधन से भागता है प्रतिकार रोज़....!!!
तम के कुशाशन पर ध्यान कौन देता,
जेबें वजने तौलता है बहिष्कार रोज़....!!!
©खामोशियाँ-२०१४
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यश एवं कुलदीप जी आपका धन्यवाद।
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