बढ़ती गलती फटती धरती,
झुलस जाता उसका चेहरा,
विनाश की ओर है बढ़ती,
आह से व्याकुल वसुंधरा।
गोद मे उसके खेलते बच्चे,
सर पर रहता हरदम पहरा,
गर्दन काट अलग कर देते,
दर्द दे जाते बड़ा ही गहरा।
विनाश की ओर है बढ़ती,
आह से व्याकुल वसुंधरा।
निर्झरिणी बैठी नहला देती,
कपड़े भी धो देता है पोखरा,
शर्म ना आती हमे कभी,
कर देते उसको भी संकरा।
विनाश की ओर है बढ़ती,
आह से व्याकुल वसुंधरा।
पवन चलता सांसें चलाता,
दिनकर देतें है जो पहरा,
वायु को दूषित करके हम,
सूरज से मोल लेते खतरा।
विनाश की ओर है बढ़ती,
आह से व्याकुल वसुंधरा।
विश्व पृथ्वी दिवस (२२ अप्रैल)
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
आपकी लिखी रचना बुधवार 23 अप्रेल 2014 को लिंक की जाएगी...............
जवाब देंहटाएंhttp://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
धन्यवाद दिग्विजय जी।
हटाएंबढ़िया रचना व प्रस्तुति , राहुल भाई धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंनवीन प्रकाशन - घरेलू उपचार ( नुस्खे ) - भाग - ८
~ ज़िन्दगी मेरे साथ - बोलो बिंदास ! ~ ( एक ऐसा ब्लॉग -जो जिंदगी से जुड़ी हर समस्या का समाधान बताता है )
स्वागत है आपका और आपका ब्लॉग अच्छा है।
हटाएंबहुत खूब ...सादर
जवाब देंहटाएंअंजू मैम स्वागतम।
हटाएंधन्यवाद।
जवाब देंहटाएंविचारणीय बात ....धरा को सहेजना हमारी साझी जिम्मेदारी है....
जवाब देंहटाएंसत्य वचन डा साहब।
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