कोई अखबार लेके बैठता, तो कोई सिगेरेट। कोई काम से बैठता, तो कोई बिन काम के। कभी राजनीति पे चर्चे गरम होते, तो कभी खिलाड़ियों की वाह वाही।
पर हाँ श्यामू की चाय हर किसी को भाती। श्यामू उस होटल का मैनेजर। अजय अग्रवाल कम आते थे तो उनका पूरा काम श्यामू ही देखता था। छोटू थोड़ा परेशान सा रहता शायद उसे सब कुछ अच्छा ना लगता। पर नियति के आगे एक अदने से छोटू की क्या औकात। उसके बातों से हमेशा एक नवाबी खानदान की बू आती। लेकिन लोग कौन उसकी बात पर ध्यान देते ही थे। एक तो छोटा समझकर दूसरा छोटू समझ कर।
छोटू बड़ा ही होनहार था। काफी तेज़ी से सीखने वाला बच्चा। तुरंत बातों को याद रखने वाला दस बरस का माधवेद्र प्रताप सिंह उर्फ छोटू बहुत महत्वाकांक्षी था। कभी पूरे होटल को खरीदने की बात करता तो कभी बड़ा आदमी बन देश मे बदलाव लाने की।
दुकान काफी बड़ी तो नहीं थी पर बगल सड़क गुजरने के वजह से धंधा अच्छा चल रहा था। लोग, राहगीर सभी अपना जायका ठीक करने उसके दुकान पर चले आते थे। पर धंधा अच्छा चले या खराब छोटू के हिस्से मे तो वही 600 रूपये आते, जिसके बदले मे तो उसके पूरे उजाले कुछ अधेरों भी छीन लिए जाते।
मैं अक्सर उधर से गुज़रता था तो कुछ देर वहाँ जरूर रुकता था। लोगों को देखता रहता, फिर कलम डोलाता। कलम मुंह मे दबाये फिर कुछ सोचता, काफी दिन ऐसे ही चलता रहा। थोड़ी बात ज्यादा करता था मैं। लोगों की उत्तेजना, उनकी भड़ास, उनके विचार आखिर सब जो कलमबद्ध करना था मुझे। तो श्यामू से रोज़ ही बात होती। श्यामू भी अपने काम मे भिड़े हमे जवाब दिया करते थे।
एक बार छोटू मुझे देख पास आ गया और बड़ी ललक से पूछा राहुल भैया 'क' है ना ये और ये 'र' ना। मैं भी बोल पड़ा हाँ बेटा पर आप पढ़ना जानते हो।
उसने सर हिलाकर मना करते बोला, जब हम घर से यहाँ आते तो सुबह एक विद्यालय मे मास्टरजी को पढ़ाते सुना था।
मैं दंग रह गया ये सुन के। चुप सा हो गया मैं....बस एक टक देखता रहा उसे। अभी तक मैंने छोटू की करतूते सुनी थी पर आज उसे महसूस कर रहा था। मुझे उस वक़्त बस ऐसा लग रहा था कि क्या चीज ऐसी अनमोल मुझे मिल जाती और मैं इस छोटे से नवाब को दे पाता।
पर निराशा ही थी मेरे पास, मैं नया लेखक था और मेरे भरसक कुछ था भी नहीं।
सोचता रहा इस छोटू नाम पर तो रिसर्च करवा देना चाहिए। छोटू ये वही नाम है जिसको लोग कितने आसानी से अपने आस-पास खोज लेते। किसी मिस्त्री मेकनिक के यहाँ, जहां पर अपने नन्हें हाथो से बड़े-बड़े रिंच कसता छोटू। या फिर गली मुहल्लों मे कूड़े की बोरी सर पर लादे उल्टे-फुल्टे रास्तो से प्लास्टिक की बोतले बीनता छोटू। सब एक ही जैसे तो होते आधे फटे कपड़े पहने, बाल उलझे हुए किस्मतों की तरह। तभी तो इनकी जाति छोटू होती। आखिर कहाँ चली जाती "समेकित बाल श्रम योजना" और "शिक्षा का अधिकार" जैसी पैसो से भरी सरकारी योजनाएँ। मैंने तो आज तक इससे किसी छोटू की ज़िंदगी संवरते नहीं देखा, हाँ अमीरज़ादों के बटुए गरम करते देखा है इन पैसो से।
खैर कुछ रोज़ मैंने वहाँ जाना बंद कर दिया मुझसे उसका दर्द देखा नहीं जाता था। अचानक एक दिन घंटी बजी। दरवाजा खोला तो पता चला श्यामू मेरे कमरे पर आए है।
"हाँ....मैनेजर साहब आप मेरे यहाँ और छोटू तू...कैसे आना हुआ बोलिए"....मैंने कहा
श्यामू की आँखें सब हाल बयान कर रही थी, पर फिर भी मैंने अपने सवाल को इस बार थोड़ा ज़ोर देते हुए किया।
अबकी बार तो श्यामू मुझसे लिपट फफक ही पड़े थे, वे बोल कम रहे थे रो ज्यादा रहे थे। मैंने उन्हे ढाढ़स बंधाया पर बात जो थोड़ी बहुत मेरे समझ आ रही थी कि शायद उनका दुकान सरकार गिरा रही है। क्यूँकी उस ओर से अब चार-लैन की सड़क जो बनेगी। अब तो चुनाव भी हैं तो सरकार ये मौका भुनाए बिना जाने नहीं देगी।
श्यामू रुकने का नाम ना ले रहे थे, रोते रोते वे सो गए। मैंने उन्हे अपने पलंग पर लेटा दिया। पर सबसे ज्यादा आश्चर्य मुझे उस नन्हें से छोटू पर आ रहा था, उसके चेहरे पर दर्द की जरा सी सिकन नहीं थी। मुझे लगा बच्चा है अभी ये सब समझ नहीं रहा होगा तो क्या। लेकिन मेरे ये सब सोचने से पहले ही वो बोल पड़ा।
राहुल भैया श्यामू काका झूठ ही डर रहे, "कल मंत्री जी आएंगे, "उनके ही पाँव पकड़ लेंगे हम कुछ गुहार करेंगे मंत्री जी दयावान है जरूर मदद करेंगे।" मुझे उस अदना से छोटू पर एक साथ जाने कितने भाव आ रहे थे। खुशी, दुख, गर्व, दर्द सबके सब एक साथ मेरे दिमाग का दरवाजा खटखटा रहे थे।
मैंने पलट के जवाब मे हाँ बोल सर हिला दिया। आज मुझे उन्हे जाने देने का मन नहीं कर रहा था। श्यामू ठीक हालत मे नहीं थे और छोटू की बातें मुझे अंदर से हिला दे रही थी।
रात बीती सुबह बड़ी तेज़ आवाज़ ने सभी के नींद खोले दिये। दौड़ के देखा तो होटल टूट रहा था, वो होटल जिसमे छोटू-श्यामू की जीवन का बहुमूल्य समय लगा था वो टूट के राख़ मे बिखर रहा था। एक-एक ईट हिलता या एक-एक आँसू चलता। बाकी तो नज़ारे देखने की भींड़ थी काफी बड़ी। अपने सामने अपने सपनों के इमारत को टूटता देख नहीं पाए श्यामू। होटल टूटते ही वो भी टूट गए काफी ज्यादा। पर ना नेता जी आए ना किसी से गुहार हुई। काफी दिन बीत गए मुझे अचानक शहर से बाहर जाना पड़ गया।
लौट के आया तो प्रचार बड़ी जोरों-शोरों पे था। हर तरफ बीजेपी पद के दावेदार "सुधाकर ओझा" का नाम की गूंज चारो तरफ थी। ढ़ोल-नगाड़े, रोड-शो, काफी कुछ जैसा कोई मेला लगा हो। बड़ी जानकारी की तो पता चला, आज "आगाज-शंखनाद रैली" है और सुधाकर जी के साथ बीजेपी पद के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार "श्याम बिहारी वाजपेयी" की गर्जन रैली। बड़े बड़े पोस्टरों पर छपा था आज गरजेंगे, श्याम बिहारी। बड़ी दूर मुझे छोटू दिखाई तो पड़ा पर शोर इतनी ज़ोर से था कि मैं उसे बुला ना सका। पर उसके चेहरे पर आज भी वही धमक थी, वो जो काम करता था वो इतने लगन से करता कि उसे मलाल ना रहता था। उसके कपड़ो से हमने अंदाजा लगाया शायद वो रैली मे कार्यकर्ता था।
मैं शाम का इंतज़ार नहीं कर सकता था और तुरंत होटल की जगह पर गया वह पर तो अभी भी वो मलवा वहीं पड़ा था। शायद किसी ने छुवा भी नहीं था। कुछ देर मे छोटू दिख ही गया। मुझे देख वो जल्दी से मेरे पास आया।
बाबूजी, "श्यामू काका कोमा मे है"। इतना कहकर वो रोने सा लगा। आखिर उसका जो था वो श्यामू ही तो था। माँ-बाप-भाई सब कुछ। आज मुझे उस छोटे बच्चे पर बहुत सारा तरस आ रहा था। मैं भगवान को कोसे बिना रह ना पाया, "क्या भगवान तुझे सारे जुल्म इसी नन्हें से कंधो पर ही डालना है और कोई नहीं दिखता तुझे।" मैं यही सब अनाब-सनाब मन मे बोले जा रहा था
राहुल भैया काका को देखने मंत्री जी आए थे। कह रहे थे दुकान वापस नहीं दे सकते पर हाँ मुआवजा तो दिया गया है भरपूर। भैया सारा माल अजय अग्रवाल गटक लिए है। हमारी मेहनत पर आखिर इन बड़े हाथो का हर बार हक़ क्यूँ चलता और अजय अग्रवाल अभी तक काका को देखने तक नहीं आए। उन्हे लगता सारा खर्चा उनका हो जाएगा। पर क्या वो इंसानियत के लिए इतना भी नहीं कर सकते। काका ने तो उनके लिए पूरा जीवन खर्चा है क्या चंद पैसे नहीं दे सकते वो।
खैर मंत्री जी ने मुझे आश्वासन दिया है कि तुम मेरे रैली मे कार्यकर्ता बन जाओ और चुनाव के बाद हम कोई और काम दे देंगे। उसकी आँखों मे आस था, आँसू भी।
मैं बस उस नन्हें से फूल की हर एक बात सुनता जा रहा था। आखिर नियति ने एक 10 बरस के छोटू को कितना कुटिल, जटिल और भारी बना दिया है। मुझे नहीं पता कि उस जगह बीजेपी जीती या काँग्रेस....मुझे नहीं पता कि वहाँ से सुधाकर ओझा जीते या कोई ओर महानुभाव। पर जो भी जीता होगा वो किसी भी छोटू खातिर कुछ नहीं किया होगा इतना पता है। उसके काका कोमा मे ही पैसे के आभाव मे दम तोड़ दिये होंगे ये पता है। अजय अग्रवाल उन पैसो से अपना कोई और कारोबार कर लिए होंगे ये पता है।
मैं बस उसके सर पर हाथ फेरता रहा। ईश्वर से अपने सारे पुण्य को समेटकर उसके कुंडली की कढ़ाई मे जलेबी की तरह छानने की गुहार करता रहा। आंखे बरसती रही और नीचे तेल मे पड़े लोगों की आवाज़े तड़-तड़ाती रही। फिर कहीं गुम हो गया छोटू उसी भींड़ मे कहीं।
- मिश्रा राहुल
(लेखक एवं ब्लोगिस्ट)
उत्तम अति उत्तम ........................
जवाब देंहटाएंतिवारी जी थोड़ी विस्तार टिप्पड़ी होती तो और मज़ा आता।
हटाएंअनगिनत छोटू गुम हो जाते हैं ऐसे ही भीड़ में ...
जवाब देंहटाएंहाँ दिगंबर साहब और हम खड़े देखते रहते कर भी क्या सकते है। इतना पैसा भी नहीं की उनको दयनीय स्थिति से उबार सके।
हटाएंwell articulated the condition of our society...where only rule is formulated and implemented in files..everywhere we see CHHOTU...but we do nothing , and in one thing we r better (me too) to to console these person without doing nothing..
जवाब देंहटाएंExactly after unwrapping the society you'll certainly get a millions of such examples hovering over your sideways.
हटाएंसुंदर, सामयिक भाई. भाषा दोष पर थोड़ी संजीदगी बरतनी होगी.
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