शाम ढलने को है। नीले-नारंगी ग्रेडियंट में रिश्तों की उधेड़-बुन चल रही है। सारे मंजर से साक्षी है सूरज-चाँद। ना सूरज अलसा रहा ना चाँद शर्मा रहा। दोनों एक साथ निगरानी कर रहे पूरे माहौल की शांत-चित होकर।
फिज़ाएँ बार बार ज़ुल्फों को कानो के दायरे से बाहर कर दे रही मानो चाहती हों सहलाना। कदम बराबर बढ़ रहे। गलियाँ खुशमिजाज़ रास्ता दिखा रही। कोई कुछ नहीं बोल रहा। हवाएँ फुसफुसा रही कानों में।
रास्तों के दस्तावेज़ मील के पत्थर बनाते जा रहे। कभी फिर गुजरे जो इधर से तो पहचान कर सके। इतने सारे एहसास की गट्ठर लादे यादें पल रही जेहन में।
- मिश्रा राहुल
(ब्लोगिस्ट एवं लेखक)
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