भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
रविवार, 17 अगस्त 2014
चाँद-फ़लक
गुस्सा तो
फ़लक से भी
होता है चाँद।
रोज़ झगड़ता
रोज़ कटता हैं।
फिर एक दिन
अचानक से
गायब हो जाता।
खूब रोता
फ़लक उस दिन
उसके खातिर।
पिघल जाता
आखिर प्यारा चंदा।
फिर आता
नए रूप,
नए रंग में
उसी चमक के साथ।
पंद्रह दिन
तक फिर से,
अपने सीने
लगाने को
तैयार खड़ा फ़लक।
_______________
चाँद-फ़लक
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(१७-अगस्त-२०१४)(डायरी के पन्नो से)
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चाँद और फलक का अनोखा नाता है...सुंदर भाव !
जवाब देंहटाएंउत्तम प्रस्तुति...
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