खिली है,
वादियों में मेरे।
रोज़ महकती,
रोज़ बहकती,
उसी की तब्बसुम से
भीगती मेरी नज़्म,
हौले-हौले से बोलती।
गुंजन करती लहरें
कितना कुछ कहती,
आवृत्ति करती बार-बार,
और धुन बजाती,
उसमे सराबोर मैं,
कुछ और सुन भी ना पाता।
बस गुनगुना लेता,
कुछ उसी के सुर निकाल।
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(१६-अगस्त-२०१४)(डायरी के पन्नो में)
कल्पना शील मन की उड़ान
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