ताले बंद कर दरवाजे खोलता हूँ।
इसे पागल पन कह दो तो सही,
सीने से पत्थर लगाकर खेलता हूँ।
अपने बहुत देखे ज़िंदगी में हमने,
गैरों को पास बुलाकर झेलता हूँ।
वक़्त ही ऐसा आजकल यहाँ का,
शीशे से दिल लगाकर तोड़ता हूँ।
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो में) (२४-अगस्त-२०१४)
जीवन ऐसा ही विरोधाभासी है
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