भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
शनिवार, 30 अगस्त 2014
पहचान
देखने को सारे जमाने घूम आए,
कहने को सारे पुराने ढूंढ लाए।
मिलते कहाँ है हर सींप में मोती,
खोजने को सारे बहाने ढूंढ लाए।
पहचान होती ही गयी अपनों की,
सहने को सारे ठिकाने ढूंढ लाए।
धूप गलियों में आई भी तो कैसी,
जलने को सारे फसाने ढूंढ लाए।
ऊब चुके ज़िंदगी की बेरहमी से,
मिलने को सारे तराने ढूंढ लाए।
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(डायरी के पन्नो से) (३०-अगस्त-२०१४)
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