भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
मंगलवार, 5 अगस्त 2014
रुकी ज़िंदगी
कोई आया और ऐसा कमाल कर गया,
रुकी-रुकी सी ज़िंदगी बहाल कर गया।
मेरा अब कुछ अपना सा रहा ही नहीं,
सारे एहसास लेकर कंगाल कर गया।
भीगते रहे ऐसे उनकी दरकतों में साए,
फ़लक रोते रोते ऐसा निहाल कर गया।
एक झटके में बदल दिया मंजर सारे,
जवाब लेकर तमाम सवाल कर गया।
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(०६-अगस्त-२०१४)(डायरी के पन्नो में)
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बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंबेहद उम्दा...बधाई !
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