बांस निकल आई डंडे बन गए।
जोश आया कुछ कर दिखाने का,
अगस्त बीता नहीं ठंडे पड़ गए।
काम-धाम छोड़ घर पर रुकते,
बिन छुट्टी लिए संडे मन गए।
दो-चार शेर चंद जुमले चले,
आंच पकी नहीं कंडे जल गए।
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(०८-अगस्त-२०१४)(डायरी के पन्नो से)
भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
बहुत सुन्दर और सटीक अभिव्यक्ति....
जवाब देंहटाएंkya baat hai,,,, waah
जवाब देंहटाएंbilkul aaina dikha dia aapne