भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
शनिवार, 16 अगस्त 2014
Genesis 2
कुछ पन्ने
ज़िंदगी के,
मोड कर रखे थे।
आज बुकमार्क*
पकड़ पहुँच गया,
उसमे भरने सब-कुछ।
मंज़र बदल गए,
रिफिल बदल गयी,
लेखनी की बनावट इतर।
कागज
कोरा कहाँ,
अब पीला पड़ चुका है।
अब और नहीं,
रोकूँगा खुद को
लिख डालूँगा सब कुछ।
हर वो नज़्म,
जो अधूरी
रह गयी थी।
ठीक उसी
एहसास में,
जो हमारी पहचान है।
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©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(१७-अगस्त-२०१४)(डायरी के पन्नो में)
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