भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
बुधवार, 20 अगस्त 2014
जरूरी तो नहीं
बातें जुबान चूमे जरूरी तो नहीं,
तारे जहान घूमे जरूरी तो नहीं।
इशारे कह डालते है बहुत कुछ,
सारे जुबान खोले जरूरी तो नहीं।
निकाल जाते चुप चाप मैदानो से,
हारे निशान छोड़े जरूरी तो नहीं।
रंग फीके पड़ जाते इस धूप में,
गोरे मकान छोड़े जरूरी तो नहीं।
बदलते देते दस्तूर जीने के कभी,
छोरे ईमान छोड़े जरूरी तो नहीं।
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©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(२०-अगस्त-२०१४)(डायरी के पन्नो में)
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कुछ ख्वाहिशें हम भी पालना चाहते हैं, थोड़ा ही सही पर रोज मिलना चाहते है। मरने का कोई खास शौक नहीं है हमें, जिंदा रहकर बस साथ चलना चाहते है...
सुन्दर प्रस्तुति !
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