भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
शुक्रवार, 1 अगस्त 2014
नज़र आए
अकेले में रोये जितने निखर आए,
अंधेरों में साए कितने उतर आए।
मेरे शागिर्द ही तो मेरे दुश्मन ठहरे,
खुद की खोज करूँ तो नज़र आए।
शाम गलियों में सन्नाटा ही रहता है,
कुछ तकल्लुफ करूँ तो ख़बर आए।
मेरे सीने में अक्सर बात चुभी रहती,
गर उसे निकाल लूँ तो सुधार आए।
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(०२-अगस्त-२०१४)(डायरी के पन्नो से)
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उम्दा जज्बात..
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक और सुन्दर अंदाज में लिखी गई रचना .....आभार
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
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