काफी पहले की बात है काफी छोटा था मैं। सुबह अभी-अभी जागी थी। चारो तरफ लोग मधुर बेला का मज़ा ले रहे थे। लोग व्यस्त थे अपने में ही। मैं अभी चाय की प्याली लेकर पहली चुस्की लेने को तैयार था कि तभी दरवाजे पर दस्तक हुई। मैंने उठकर दरवाजा खोला। देखा फटे चिथड़े से लिपटी एक वृद्धा खड़ी थी। आंखो में उसकी सारी परेशानियाँ देखी जा सकती थी। मैं उन्हे थोड़ी देर तक देखता ही रह गया। फिर उनके कटोरे पर नज़र गयी। उसमे सिर्फ १० पैसे पड़े थे। मेरा घर मुहल्ले में काफी घरों बाद में पड़ता है। मैं यही सोचने लगा कि क्या आज दुनिया इतनी एडवांस हो चुकी हैं कि नई मूवी देखने में वो बालकनी लेते डीसी नहीं, आइसक्रीम नए फ्लेवर की ही खाते भले उसमे ५०-६० रुपए अधिक गवाने पड़े। लेकिन वृद्धा के कटोरे को देख कर लगा कि मुहल्ले वाले तो सारे गरीब हैं।
मैं अंदर गया और अम्मा से बोला। बाहर देखिये कोई आया है उन्हे कुछ दे दीजिये। अम्मा ने १० रूपए दिये। मैं सोचा इन दस रुपए से आखिर उनका क्या होगा। अम्मा मेरी हालत समझ चुकी थी। उसने तुरंत १० रुपए मे दो शून्य और जोड़ दिये। मैं भी खुशी खुशी उन्हे देने को गया मुझे लगा आज आशीर्वाद मिलेगा बहुत ज्यादा। आखिर इंसान को और क्या चाहिए आशीर्वाद ही तो ताकि वो आगे बढ़ सके, नाम कमा सके। यही सब सोचते मैं वृद्धा के समीप आ गया।
मैंने बोला, "दादी ये लीजिये १००० रुपए। इससे कुछ दिन तो आप आराम से गुज़ार सकेंगी।"
वृद्धा ने जवाब दिया, "मैंने आज तक भीख नहीं मांगा बेटा, इसलिए मुझे इसे लेने में लज्जा आ रही। आज अगर मेरा बेटा जिंदा होता तो वो मुझे इस हाल में नहीं छोड़ता।"
मैं बड़े पेसोपेस में फंस गया। छोटा सा तो था मैं इतनी सब बातें मेरे भेजे की परिधि से बाहर की थी।
फिर भी मैंने प्रयास किया,"दादी मेरे पास एक उपाए है।"
उन्होने से आश्चर्य से पूछा,"क्या"
मैं जवाब दिया,"दादी आप मुझे अपना १० पैसा दे दीजिये और मैं आपको ये दे दूंगा। दोनों पैसे ही तो है इंसान के द्वारा बनाए। आखिर दोनों में फर्क क्या केवल दो शून्य का। वैसे भी शून्य का कोई वजूद नहीं होता।"
वृद्धा समझ गयी थी कि आज बच्चा उन्हे वो दे कर रहेगा। थोड़ी देर तक उन्होने सोचा फिर मुझे गले लगा लिया।
आँसू रुक नहीं रहे थे। झरते ही जा रहे थे। आज जब भी मैं वो १० पैसे देखता हूँ तो सोचता आखिर ये उनके दस पैसे ही तो थे जिसने मुझे आज इतना समजदार बना दिया कि मैं दुनिया को परख सकूँ /समझ सकूँ ।
तो दुआ ही तो थी दादी की बस १० पैसे की दुवा।
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१० पैसे की दुआएँ - लघु कथा
©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(३१-जुलाई-२०१४)(डायरी के पन्नो से)
भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
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लघु कथा अच्छी लगी!
जवाब देंहटाएंबालक के हृदय की कोमलता अंतर को छू गयी..
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