भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
बुधवार, 13 अगस्त 2014
एक उजाला खोजे
आओ चलके एक उजाला खोजे,
फिर से जीने का मसाला खाजे।
हाथ दे कर थाम भी ले ज़िंदगी,
दुनिया घूम कर रखवाला खोजे।
टूट कर ऐसे ना बिखरती उम्मीदें,
ताउम्र हम ऐसा मतवाला खोजे।
बंद हो जाए कुछ किस्से अकेले,
चाभी भूलकर ऐसा ताला खोजे।
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©खामोशियाँ-२०१४//मिश्रा राहुल
(१३-अगस्त-२०१४)(डायरी के पन्नो से)
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