भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
शुक्रवार, 29 मई 2015
यादों का बागीचा
बगीचे के टिकोरे लद गए है। चल चलते है ना बगीचे मैं अपनी गुलेल निकालूँगा। हाँ मेरी जान सुपर-गुलेल। उसी से तो तुझे इम्प्रेस किया था। फिर निशाना लगाऊँगा खरीद कर लाया हूँ दस कंचे। प्रॉमिस 10 मे से तेरा 8 हिस्सा होगा। मैं फिर पेट दर्द का बहाना बनाकर तुझे पूरा दे दूंगा।
मन होता कभी सिखाऊँ तुझे गुलेल चलाना। जाइसे शोले में धर्मेंदर सिखाता नहीं बसंतीया को, बिलकुल उसी टाइप। यही सब सोच ही रहा था सुनील की एक टिकोरा उसके सर पर आ गिरा और मीठी नींद से जागा दिया। आज दिन काफी बदल गया है। ना अब नानी के यहाँ जाना होता ना ही अब मेरा निशाना उतना पक्का।
सलोनी भी गुम हो गयी इतिहास के सुनहरे पन्नो में। नानी का खपड़ैल कबका बिखर चुका है। बागीचे से लौटकर सलोनी के मुहल्ले की गली को ताकता सुनील काफी देर बैठा रहा। पर सलोनी कहाँ आने वाली वो तो महफ़ूज है आज भी छुटकी सी दो चोटी लाल फीते से बाधे किसी पुरानी यादों के बागीचे में।
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यादों का बागीचा - मिश्रा राहुल
©खामोशियाँ-२०१५ | २९-मई-२०१५
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