भोर के तारे,सांझ का आलस,रात का सूरज,पतझड़ के भौरे.... ताकते हैं हमेशा एक अजीब बातें जो लोग कहते हो नहीं सकता... चलते राहों पर मंजिल पाने को पैदल चल रहे कदमो में लिपटे धूल की परत... एक अनजाने की तरह उसे धुलने चल दिए...कितनी कशिश थी उस धूल की हमसे लिपटने की...कैसे समझाए वो...मौसम भी बदनुमा था शायद या थोड़ा बेवफा जैसा...एक जाल में था फंसा हर आदमी जाने क्यूँ पता नहीं क्यूँ समझ नहीं पाता इतना सा हकीकत...एक तिनका हैं वो और कुछ भी नहीं...कुछ करना न करना में उसे हवाओं का साथ जरूरी हैं..
शुक्रवार, 22 मई 2015
मुझमें समा ना
छोड़
ना दलीलें
दुनियादारी की।
तू
अपना हक
जाता ना,
तू
फिर से
मुझमें समा ना।
दो बातें
पुरानी करनी।
दो रातें
साथ जगनी।
कुछ
खिस्से फिर
बतला ना।
तू
फिर से
मुझमें समा ना।
दुनिया
परायी सी
लगती है।
तन्हा
सतायी सी
लगती है।
तू
बातों का
जादू चला ना।
तू
फिर से
मुझमें समा ना।
रोज
खोजता हूँ
वो अक्स तेरा।
कितना
प्यारा सा
खिलखिलाता चेहरा
तू
खुल के
सब बता ना।
तू
फिर से
मुझमें समा ना।
©खामोशियाँ-२०१५ | मिश्रा राहुल | २२-०५-२०१५
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