पुरानी दस्तख़त में अपने सुनाया होता,
कोई अपना अगर मिलने बुलाया होता।
कितने कलपुर्जे और चलते हुए मिलते,
नज़्मों को तुमने आवाज़ लगाया होता।
इंतज़ार करता रहता हूँ हर रोज़ तेरा,
प्यार कम कर थोड़ा और सताया होता।
वशीहत लिख रहा हूँ अपनी यादोँ का,
कीमत कितनी कुछ तो सिखाया होता।
जिंदगी इसी मलाल में जी रहा ए खुदा,
काश तूने एक चाँद और बनाया होता।
©खामोशियाँ - २०१५ | मिश्रा राहुल
(27-अक्टूबर-2015)(डायरी के पन्नों से)
बहुत ही शानदार रचना की प्रस्तुति। मेरे ब्लाग पर आपका स्वागत है।
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